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कर्म-सिद्धान्त
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नारक, तिर्यंच या देव योनि में उत्पन्न होता है तो पुण्य कर्म करनेवाले को ही उसका फल मिलता है । इस प्रकार बौद्ध विचारणा कुशल कर्मों के फल संविभाग को स्वीकार करती है। गीता एव हिन्दू परम्परा का दृष्टिकोण
गीता कर्मफल संविभाग में विश्वास करती है, ऐसा कहा जा सकता है । गीता में श्राद्ध-तर्पण आदि क्रियाओं के अभाव में तथा कुलधर्म के विनष्ट होने से पितर का पतन हो जाता है, यह दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है।' इसका स्पष्ट अर्थ है कि संतानादि द्वारा किये गये शुभाशुभ कृत्यों का प्रभाव उनके पितरों पर पड़ता है । महाभारत में यह बात भी स्वीकार की गई है कि न केवल सन्तान के कृत्यों का प्रभाव पूर्वजों पर पड़ता है वरन् पूर्वजों के शुभाशुभ कृत्यों का फल भी सन्तान को प्राप्त होता है । शान्तिपर्व में भीष्म युधिष्ठिर से कहते हैं, 'हे राजन्, चाहे किसी आदमी को उसके पाप कर्मों का फल उस समय मिलता हुआ न दीख पड़े, तथापि वह उसे ही नहीं किन्तु उसके पुत्रों, पौत्रों और प्रपौत्रों तक को भोगना पड़ता है ।'२ इसी सन्दर्भ में मनुस्मृति (४।१७३ ) एवं महाभारत ( आदिपर्व, ८०।३ ) का उद्धरण देते हुए तिलक भी लिखते हैं कि न केवल हमें, किन्तु कभी-कभी हमारे नाम-रूपात्मक देह से उत्पन्न लड़कों और हमारे नातियों तक को कर्मफल भोगने पड़ते हैं । इस प्रकार हिन्दू विचारणा सभी शुभाशुभ कर्मों के फल-संविभाग को स्वीकार करती है। तुलना एव समीक्षा
बौद्ध और हिन्दू परम्परा में महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि हिन्दू धर्म में मनुष्य के शुभ और अशुभ कर्मों का फल उसके पूर्वजों एवं सन्तानों को मिल सकता है, जब कि बौद्ध धर्म में केवल पुण्य कर्मो का फल ही प्रेतों को मिलता है। हिन्दू धर्म में पुण्य और पाप दोनों कर्मों का फल-संविभाग स्वीकार किया गया है, जब कि बौद्धधर्म का सिद्धान्त यह है कि कुशल ( पुण्य ) कर्म का ही संविभाग हो सकता है, अकुशल (पाप) कर्म का नहीं। मिलिन्दप्रश्न में दो कारणों से अकुशल कर्म को संविभाग के अयोग्य माना है (१) पाप-कर्म में प्रेत की अनुमति नहीं है, अतः उसका फल उसे नहीं मिल सकता। (२) अकुशल परिमित होता है, अतः उसका संविभाग नहीं हो सकता; किन्तु कुशल विपुल होता है अतः उसका संविभाग हो सकता है।
लेकिन विचारपूर्वक देखें तो यह तर्क औचित्यपूर्ण नहीं है। यदि अनुमति के अभाव में अशुभ का फल प्राप्त नहीं होता है तो फिर शुभ का फल कैसे प्राप्त हो
१. गीता, ११४२. २ महाभारत, शन्तिपर्व, १२६. १. गीतारहस्य, पृ० २६८. ४. देखिए-आत्ममीमांसा, पृ० १३२-१३३; मिलिन्दप्रश्न, ४।८।३०-३५, पृ० २८८.
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