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________________ कर्म-सिद्धान्त ३.११. प्रकृति से सम्बन्धित मानती है । उसमें आत्मा को अकर्ता ही कहा गया है, लेकिन गीता में जो बन्धन का कारण है वह पूर्णतया जड़ (भौतिक) नहीं है । जब तक जड़ प्रकृति की उपस्थिति में पुरुष या आत्मा अहंकार से युक्त नहीं होता, तब तक बन्धन नहीं होता । आत्मा का अहंभाव ही वह चैत्तसिक पक्ष है, अहंभाव का निमित्त है । रूप चेतन पुरुष दोनों ही जो बन्धन का मूलभूत उपाअहंकार के लिए निमित्त के अपेक्षित हैं । दान है और जड़ प्रकृति उस रूप प्रकृति और उपादान के का भौतिक पक्ष है और पुरुष उसका चेतन पक्ष । इस प्रकार यहाँ दर्शन निकट आ जाते हैं। गीता की प्रकृति जैन दर्शन के द्रव्यकर्म के समान हैं और गीता का अहंकार भावकर्म के समान है । दोनों में कार्य कारणभाव है और दोनों को उपस्थिति में ही बन्धन होता है । एक समग्र दृष्टिकोण भावश्यक बन्धन और मुक्ति के वास्तएक समग्र दृष्टिकोण बन्धन कर्ममय नैतिक जीवन को समुचित व्यवस्था के लिए, विक विश्लेषण के लिए, एक समग्र दृष्टिकोण आवश्यक है । और मुक्ति को न तो पूर्णतया जड़ प्रकृति पर आरोपित करता है और न उसे मात्र चैत्तसिक तत्त्वों पर आधारित करता है । यदि कर्म का अचेतन या जड़ पक्ष ही स्वीकार किया जाये, तो कर्म आकारहीन विषयवस्तु होगा और यदि कर्म का चैत्तसिक पक्ष हो स्वीकारें तो कर्म विषयवस्तुविहीन आकार होगा । लेकिन विषयवस्तुविहीन आकार और आकारविहीन विषयवस्तु दोनों ही वास्तविकता से दूर हैं । जैन कर्म सिद्धान्त कर्म के भौतिक एवं भावात्मक पक्ष पर समुचित जोर देकर जड़ और चेतन के मध्य एक वास्तविक सम्बन्ध बनाने का प्रयास करता है । डा० टॉटिया लिखते हैं, "कर्म अपने पूर्ण विश्लेषण में जड़ और चेतन के मध्य योजक कड़ी है - यह चेतन और चेतनसंयुक्तजड़ पारस्परिक परिवर्तनों की सहयोगात्मकता को अभिव्यंजित करता है ।" सांख्य योग के अनुसार कर्म पूर्णतः जड़ प्रकृति से सम्बन्धित है और इसलिए वह प्रकृति ही है जो बन्धन में आती है और मुक्त होती है । बौद्ध दर्शन के अनुसार कर्म पूर्णतया चेतना के सम्बन्धित है और इसलिए चेतना ही बन्धन में आती है और मुक्त होती है । लेकिन जैन विचारक इन एकांगी दृष्टिकोणों से सन्तुष्ट नहीं थे । उनके अनुसार संसार का अर्थ है जड़ और चेतन का पारस्परिक बन्धन और मुक्ति का अर्थ है दोनों का अलग-अलग हो जाना । ६९. भौतिक और अभौतिक पक्षों की पारस्परिक प्रभावकता वस्तुतः नैतिक दृष्टि से यह प्रश्न अधिक महत्त्वपूर्ण है कि चैतन्य आत्मतत्त्व और कर्मपरमाणुओं ( भौतिक तत्त्व ) के मध्य क्या सम्बन्ध है ? जिन दार्शनिकों ने चरम सत्य के रूप में अद्वैत की धारणा को छोड़कर द्वैत की धारणा स्वीकार की उनके लिए यह प्रश्न बना रहा कि इनके पारस्परिक सम्बन्धों की व्याख्या करें। यह एक कठिन १. स्टडीज इन जैन फिलासफी, पृ० २२८ १९ Jain Education International प्रकृति अहंकार गीता और जैन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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