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________________ कर्म- सिद्धान्त जैन विचारक एकान्त रूप में न तो आत्मा को ही बन्धन का कारण मानते हैं और न जड़ कर्म वर्मणाओं को, अपितु यह मानते हैं कि जड़ कर्म वर्गणाओं के निमित्त से मात्मा बन्ध करता है । द्रव्य-कर्म और भाव-कर्म 1 । कर्म के द्रव्यात्मक और भावात्मक ये दो पक्ष हैं । प्रत्येक कर्म संकल्प के हेतु के रूप में विचारक ( उपादान कारण ) और उस विचार का प्रेरक ( निमित्त कारण ) दोनों ही आवश्यक हैं । आत्मा के मानसिक विचार भाव-कर्म हैं और ये मनोभाव जिस निमित्त से होते हैं या जो इनका प्रेरक है वह द्रव्य कर्म है । कर्म के चेतन-अचेतन पक्षों की व्याख्या करते हुए आचार्य नेमिचन्द्र लिखते हैं, 'पुद्गल - पिण्ड द्रव्यकर्म है और उसकी चेतना को प्रभावित करनेवाली शक्ति भाव-कर्म है ।" कर्म सिद्धान्त की समुचित व्याख्या के लिए यह आवश्यक है कि कर्म के आकार ( form ) और विषयवस्तु ( matter ) दोनों ही हों । जड़-कर्म परमाणु-कर्म की विषयवस्तु हैं, और मनोभाव उसके आकार हैं । हमारे सुख-दुःखादि अनुभवों अथवा शुभाशुभ कर्म संकल्पों के लिए कर्म परमाणु भौतिक कारण हैं और मनोभाव चैतसिक कारण हैं आत्मा में जो मिथ्यात्व ( अज्ञान ) और कषाय ( अशुचित वृत्ति ) रूप, राग, द्वेष आदि भाव हैं वही भाव - कर्म है । भाव-कर्म आत्मा का वैभाविक परिणाम ( दूषित वृत्ति ) है और स्वयं आत्मा ही उसका उपादान है । भाव-कर्म का आन्तरिक कारण आत्मा है, जैसे घट का आन्तरिक ( उपादान ) कारण मिट्टी है । द्रव्य कर्म सूक्ष्म कार्मण जाति के परमाणुओं SAT विकार है और आत्मा उनका निमित्त कारण हैं, जैसे कुम्हार घड़े का निमित्त कारण है | आचार्य विद्यानन्दि ने अष्टसहस्री में द्रव्यकर्म को 'आवरण' और भावकर्म को 'दोष' के नाम से अभिहित किया है। चूंकि द्रव्य-कर्म आत्म-शक्तियों के प्रकटन को रोकता है, अतः वह 'आवरण' है और भाव-कर्म स्वयं आत्मा की ही विभावावस्था है, अतः वह 'दोष' है । जिस प्रकार जैन दर्शन में कर्म के आवरण और दोष दो कार्य होते हैं, उसी प्रकार वेदान्त में माया के दो कार्य माने गये हैं- आवरण और विक्षेप | जैनाचार्यों ने आवरण और दोष अथवा द्रव्य कर्म और भाव-कर्म के मध्य कार्य-कारण भाव स्वीकार किया है । जैन कर्मसिद्धान्त में मनोविकारों का स्वरूप कर्म-परमाणुओं की प्रकृति पर निर्भर करता है और कर्म-परमाणुओं की प्रकृति का निर्धारण मनोविकारों के आधार पर होता है। इस प्रकार जैन धर्म में कर्म के चेतन और अचेतन दोनों पक्षों को स्वीकार किया गया है जिसे वह अपनी पारिभाषिक शब्दावली में द्रव्यकर्म और भावकर्म कहता है । :०७ जैसे किसी कार्य के लिए निमित्त और उपादान दोनों कारण आवश्यक हैं, वैसे ही जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार आत्मा ( जीव ) के प्रत्येक कर्मसंकल्प के लिए उपादान १. गोम्मटसार कर्मक. ण्ड, ६. २. अष्टसहस्री, पृ० ५१; उद्धृत- स्टडीज इन जैन फिलासफी, पृ० २२७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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