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________________ २९३ जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन सिद्धान्त कार्यकारण सिद्धान्त के नियमों एवं मान्यताओं का मानवीय आचरण के क्षेत्र में प्रयोग है, जिसकी उपकल्पना यह है कि जगत् में कुछ भी संयोग अथवा स्वच्छन्दता का परिणाम नहीं है ।" जगत् में सभी कुछ किसी नियम के अधीन हैं। डॉ० आर० एस० नवलखा का कथन है कि 'यदि कार्यकारण- सिद्धान्त जागतिक तथ्यों की व्याख्या को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करता है, तो फिर उसका नैतिकता के क्षेत्र में प्रयोग करना न्यायिक क्यों नहीं होगा ।२ मैक्समूलर ने भी लिखा है कि 'यह विश्वास कि कोई भी अच्छा या बुरा कर्म ( बिना फल दिये ) समाप्त नहीं होता, नैतिक जगत् का ठीक वैसा ही विश्वास है जैसा कि भौतिक जगत् में ऊर्जा की अविनाशिता के नियम का विश्वास है । कर्म सिद्धान्त और कार्यकारण- सिद्धान्त में साम्य होते हुए भी उनके विषयों की प्रकृति के कारण दोनों में जो मौलिक अन्तर है, उसे ध्यान में रखना चाहिए । भौतिक जगत् में कार्यकारण- सिद्धान्त का विषय जड़ पदार्थ होते हैं, अतः उसमें जितनी नियतता होती है वैसी नियतता प्राणीजगत् में लागू होनेवाले कर्मसिद्धान्त में नहीं हो सकती । यही कारण है कि कर्म सिद्धान्त में नियतता और स्वतन्त्रता का समुचित संयोग होता है । उपयोगिता के तर्क ( प्रैग्मेटिक लॉजिक ) की दृष्टि से भी यह धारणा आवश्यक और औचित्यपूर्ण प्रतीत होती है कि हम आचारदर्शन में एक ऐसे सिद्धान्त की प्रतिष्ठापना करें, जो नैतिक कृत्यों के अनिवार्य फल के आधार पर उनके पूर्ववर्ती और अनुवर्ती परिणामों की व्याख्या भी कर सके तथा प्राणियों को शुभ की ओर प्रवृत्त और अशुभ से विमुख करे । भारतीय चिन्तकों ने कर्म सिद्धान्त की स्थापना के द्वारा न केवल नैतिक क्रियाओं के फल की अनिवार्यता प्रकट की, वरन् उनके पूर्ववर्ती कारकों एवं अनुवर्ती परिणामों की व्याख्या भी की, साथ ही सृष्टि के वैषम्य का सुन्दरतम समाधान भी किया । $ २. कर्म - सिद्धान्त की मौलिक स्वीकृतियां और फलितार्थ कर्म - सिद्धान्त की प्रथम मान्यता यह है कि प्रत्येक क्रिया उसके परिणाम से जुड़ी है । उसका परवर्ती प्रभाव और परिणाम होता है । प्रत्येक नैतिक क्रिया अनिवार्यतया फलयुक्त होती है, फलशून्य नहीं होती । कर्म सिद्धान्त की दूसरी मान्यता यह है कि उस परिणाम की अनुभूति वही व्यक्ति करता है जिसने पूर्ववर्ती क्रिया की है । पूर्ववर्ती क्रियाओं का कर्ता ही उसके परिणाम का भोक्ता होता है । तीसरे, कर्म सिद्धान्त यह भी मानकर चलता है कि कर्म और उसके विपाक की यह परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है । जब इन तीनों प्रश्नों का विचार करते हैं तो शुभाशुभ नैतिक १. फिलासा फिकल क्वाटरली, अप्रैल १९३२, पृ०७२. २. शंकर्स ब्रह्मवाद, पृ० २४८. ३. श्री लेक्चरर्स आन वेदान्त फिलासफी, पृ० १६५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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