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________________ आत्मा को अमरता २४७ को नित्य और चेतन अवस्था-विशेष ( व्युच्छिति नय ) की दृष्टि से आत्मा को अनित्य मानता है तो वह अपने को बौद्ध दर्शन के निकट ही खड़ा पाता है। ६७. गीता का दृष्टिकोण आत्म की नित्यता के प्रश्न पर गीता का दृष्टिकोण बिलकुल स्पष्ट है। गीता में आत्मा को स्पष्टरूप से नित्य कहा गया है। श्री कृष्ण कहते हैं कि जीवात्मा के ये सभी शरीर नाशवान कहे गये हैं, लेकिन यह जीवात्मा तो अविनाशी है। न तो यह कभी उत्पन्न होता है और न मरता है। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर का नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता। वह आत्मा अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य, नित्य, सर्वव्यापक, अचल और सनातन है। इस आत्मा को जो मारनेवाला समझता है और जो दूसरा ( कोई ) इस आत्मा को देह के नाश से मैं नष्ट हो गया-ऐसे नष्ट हुआ मानता है-अर्थात् हननक्रिया का कर्म मानता है, वे दोनों ही अहंप्रत्यय के विषयभूत आत्मा को अविवेक के कारण नहीं जानते । यह आत्मा उत्पन्न नहीं होता और मरता भी नहीं।' इस प्रकार गीता आत्मा की नित्यता का प्रतिपादन करती है। जैन, बौद्ध और गीता के दृष्टिकोणों की तुलना जैन दर्शन के समान गीता भी तात्त्विक आत्मा की नित्यता का प्रतिपादन करती है। इतना ही नहीं, गीता में जीव की विभिन्न शारीरिक एवं मानसिक अवस्थाओं की अनित्यता का संकेत भी उपलब्ध है। इस आधार पर गीता का मन्तव्य भी जैन दृष्टिकोण से अधिक दूर नहीं है । यद्यपि गीता आत्मा के अविनाशी स्वरूप पर ही अधिक जोर देती है। ___इस प्रकार हम देखते हैं कि जहां एक ओर बौद्ध दर्शन आत्मा के अनित्य या परिवर्तनशील पक्ष पर अधिक बल देता है, वहाँ दूसरी ओर गीता आत्मा के नित्य या शाश्वत पक्ष पर अधिक बल देती है। जबकि जैन दर्शन दोनों पक्षों पर समान बल देते हुए उनमें सुन्दर समन्वय प्रस्तुत करता है । ६८. आत्मा को अमरता और पुनर्जन्म आत्मा की अमरता के साथ पुनर्जन्म का प्रत्यय जुड़ा हुआ है। भारतीय दर्शनों में चार्वाक को छोड़कर शेष सभी दर्शन पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं । जब आत्मा को अमर मान लिया जाता है, तो पुनर्जन्म भी स्वीकार करना ही होगा। गीता कहती है जिस प्रकार मनुष्य वस्त्रों के जीर्ण हो जाने पर नये वस्त्र ग्रहण करता रहता है, वैसे ही यह आत्मा भी जीर्ण शरीर को छोड़कर नया शरीर ग्रहण करता रहता है । न केवल गोता में, वरन् बौद्ध दर्शन में भी इसे माना गया है । डा० रामानन्द १. गीता, २।१८-२०, २३-२४; तुलना करें-आचारांग, १।३३. २. वही, २५।१६. ३. बही, २।२२; तुलना करें-थेरगाथा, ११३८६८८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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