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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
पुण्यादि धर्म ही किया जा सकता है ।' कौटिल्य ने भी अर्थशास्त्र में इसी दृष्टिकोण को प्रतिपादित किया है ।२
२. काम ही परम पुरुषार्थ है, क्योंकि विषयों की इच्छा या काम के अभाव में न तो कोई धन प्राप्त करना चाहता है, और न कोई धर्म करना चाहता है । काम ही अर्थ और धर्म से श्रेष्ठ है । 3 जैसे दही का सार मक्खन है, वैसे ही अर्थ और धर्म का सार काम है।
३. अर्थ, काम और धर्म तीनों ही स्वतन्त्र पुरुषार्थ हैं, तीनों का समान रूप से सेवन करना चाहिए। जो एक का सेवन करता है वह अधम है, जो दो के सेवन में निपुण है वह मध्यम है और जो इन तीनों में समान रूप से अनुरक्त है, वही मनुष्य उतम है।
४. धर्म ही श्रेष्ठ गुण ( पुरुषार्थ ) है, अर्थ मध्यम है और काम सबकी अपेक्षा निम्न है। क्योंकि धर्म से ही मोक्ष की उपलब्धि होती हैं, धर्म पर ही लोक-व्यवस्था आधारित है और धर्म में ही अर्थ समाहित है । ६
५. मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है । मोक्ष उपाय के रूप में ज्ञान और अनासक्ति यही परम कल्याणकारक है। १३ चारों पुरुषार्थों की तुलना एवं क्रमनिर्धारण
पुरुषार्थचतुष्टय के सम्बन्ध में उपर्युक्त विभिन्न दृष्टिकोण परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, लेकिन सापेक्षिक दृष्टि से इनमें विरोध नहीं रह जाता है। साधन की दृष्टि से विचार करने पर अर्थ ही प्रधान प्रतीत होता है, क्योंकि अर्थाभाव में दैहिक मांगों ( काम ) की पूर्ति नहीं होती। दूसरी ओर, लोक के अर्थाभाव से पीड़ित होने पर धर्मव्यवस्था या नीति भी समाप्त हो जाती है। कहा ही गया है-मखा कौन सा पाप नहीं करता ?
यदि साधक ( व्यक्ति ) की दृष्टि से विचार करें तो दैहिक मूल्य ( काम ) ही प्रधान प्रतीत होता है । मनोदैहिक मूल्यों ( इच्छा एवं काम ) के अभाव में न तो नीति-अनीति का प्रश्न खड़ा होता है और न आर्थिक साधनों की ही कोई आवश्यकता । दूसरे, धर्मसाधन और आध्यात्मिक प्रगति भी शरीर से सम्बन्धित है । कहा गया है-धर्मसाधन के लिए शरीर ही प्राथमिक है। दैहिक मांगों की पूर्ति के १. महाभारत, शान्तिपर्व, १६७।१२-१३. २. कौटिलीय अर्थशास्त्र, १।७. ३. महाभारत, शान्तिपर्व, १६७।२९. ४. वही, १६७।३५. ५. वही, १६७।४०. ६. वही, १६७४८. ७. वही, १६७।४६. ८. बुभुक्षितःकिं न करोति पापम् ? ९. शरीरमा खलु धर्म सापनम् ।
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