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यह ज्ञात हो कि व्यक्ति - आत्मा अपने प्रयासों से परमात्मा में विलीन होता है । इन सबके बावजूद नित्यवादी अवधारणा में भी यम, नियम, आत्मोपम्य, करुणा, सेवा, त्याग आदि गुणों को महत्त्व दिया गया है और उसके पक्ष में विपुल शास्त्रों की रचना भी की गई है । किन्तु इन्हें परम पुरुषार्थ या परमार्थ स्वीकार नहीं किया गया है । इन गुणों को सामान्य धर्म या नीति की कोटि में रखा जाता है । वास्तव में इन गुणों का ऐहिकता से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है । भारतीय सन्दर्भ में उन्हें कथंचित् आध्यात्मिकता से भी जोड़ा गया है और उसे मूल्य प्रदान किया गया है किन्तु ऐसा करने में इसकी पूरी सावधानी रखनी होगी कि नीति कहीं अध्यात्म में महत्त्व न खो दे । इसके लिए नीति के सन्दर्भ में क्षेत्र में मानी जानी चाहिए। यदि अध्यात्म का तो विवेकपूर्वक उसे नीति और कर्म से पृथक् रखना होगा ।
डूब न जाय और अपने स्वयं का अध्यात्म को चरितार्थता ऐहिकता के ऐहिकता -निरपेक्ष स्वतन्त्र अस्तित्व है
कर्मवाद भी एक दूसरी मान्यता है जो नित्यवादी धारणाओं से प्रभावित है, यद्यपि
उसकी निर्बाध व्याख्या नित्यवाद में सम्भव नहीं होती । नित्यवाद के विरुद्ध कर्मवाद नीतिनिर्धारक मान्यता है, जिसमें आत्मा और ईश्वर न मानने पर भी बौद्ध कर्मवादी हैं । परलोकवाद को स्वीकार करने के कारण नीति की ऐहिकतावादी व्याख्या कर सकना बौद्ध के लिए कठिन है । कर्म एवं कर्मफल की ऐहिकतावादी व्याख्या न कर सकने के कारण ही कर्म परलोकवाद से मिल कर रहस्य एवं विश्वास बन गया । वह मनुष्य के लिए भार बन चुका है । यही कारण है कि अध्यात्मवादियों के लिए कर्म बन्धन बन गया, क्योंकि उसका समाधान कठिन था, फलतः उससे निवृत्त हो जाने को ही पुरुषार्थ माना जाने लगा ।
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कर्मवाद का घनिष्ठ सम्बन्ध कार्यकारणभाव से है । कार्यकारण के बीच जितनी
मात्रा में स्थिर एवं नित्य तत्त्व सन्निविष्ट किये जायेंगे, उतनी मात्रा में ही कर्मवाद का नीति निर्धारक रूप कम होता जायेगा । इस प्रसंग में व्यक्ति और समाज के बीच के सम्बन्धों का यदि विश्लेषण किया जाए तो ज्ञात होगा कि आत्मा, ईश्वर और परलोक आदि की मान्यताएँ किस प्रकार उन दोनों के बीच तार्किक आधार पर स्वतन्त्र सम्बन्ध नहीं बनने देते । पूर्ण एवं अपूर्ण किसी प्रकार के नित्य तत्त्वों के न मानने के कारण बौद्ध तथा नित्य के साथ अनित्य को भी स्थान देने के कारण जैन इस स्थिति में हैं कि वे यथा सम्भव कर्म की स्वतन्त्र व्याख्या कर सकें । यही कारण है कि इन धाराओं में एतत् सम्बन्धी विपुल साहित्य का निर्माण हुआ, जो वैदिकों में सम्भव नहीं हो सकता था । व्यक्तित्व के निर्माण में यदि सामाजिक उपादान कारण नहीं हैं या आवश्यक मात्रा से कम हैं, तो नित्यवाद एवं परलोकवाद के प्रभाव में व्यक्ति क्यों समाजनिरपेक्ष एवं उससे स्वतन्त्र नहीं होता जाएगा ? इस दार्शनिक स्थिति में भी नित्यवादियों द्वारा
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