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________________ भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त १३९ एक लम्बी परम्परा है। प्लेटो और अरस्तू से लेकर लेमाण्ट, जाकमारिता तथा समकालीन विचारकों में वारनर फिटे, सी० बी० गर्नेट और इस्राइल लेविन प्रभृति विचारक इस परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं । ये सभी विचारक मानवीय गुणों के विकास में नैतिकता के प्रत्यय को देखते हैं, फिर भी प्राथमिक मानवीय गुण क्या है इस विषय में उनमें मतभेद हैं। समकालीन मानवतावादी विचारकों में भी इस प्रश्न को लेकर प्रमुख रूप से तीन वग हैं जिन्हें आत्मचेतनावादी, विवेकवादी और आत्मसंयमवाटी कह सकते हैं। इन तीनों मान्यताओं का जैन दर्शन के साथ निकट सम्बन्ध देखा जा सकता है। इनके साथ जैन दर्शन की तुलना करने के पूर्व, मानवतावाद की कुछ सामान्य प्रवृत्तियों का जैन विचार परम्परा के साथ तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है। सर्वप्रथम मानवतावादी विचार परम्परा सहानुभूति के प्रत्यय को ही. नैतिकता का आधार बनाती है । मानवतावाद के अनुसार मनुष्य का परम प्राप्तव्य इसी जगत् में केन्द्रित है और इसलिए वह अपने नैतिक दर्शन को किसी पारलौकिक सुख-कामना पर आधृत नहीं करता । उसके अनुसार नैतिक होने के लिए किसी पारलौकिक आदर्श या साध्य की आवश्यकता नहीं है, वरन् मनुष्य में निहित सहानुभूति का तत्त्व ही उ । नैतिकता के प्रति आस्थावान बनाये रखने के लिए पर्याप्त है। वह नैतिकता को प्रलोभन और भय के आधार पर खड़ा न करके मानव में निहित सहानुभूति के तत्त्व पर खड़ा करता है। उसके अनुसार नैतिक होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि हम किसी पारलौकिक सत्ता या ईश्वर अथवा कर्म के नियम जैसे किसी सिद्धान्त पर आस्था रखें, वरन् मानवीय प्रकृति में निहित सहानुभूति का तत्त्व ही नैतिक होने के लिए पर्याप्त है। इस विषय में जैन दर्शन का दृष्टिकोण क्या है ? जैन दर्शन भी प्राणी में निहित सहानुभूति के तत्त्व को स्वीकार करता है, तथापि वह कर्म सिद्धान्त को भी मानकर चलता है । इस प्रकार जहाँ मानवतावाद सहानुभूति के तत्त्व को ही नैतिकता का आधार बनाता है, वहाँ जैन दर्शन सहानुभूति के तत्त्व के साथ-साथ कर्म सिद्धान्त को भी नैतिकता का आधार बनाता है ।। __ मानवतावाद सांसारिक हित-साधन पर जोर देता है और पारलौकिक सुखकामना को व्यर्थ मानता है। वह मनुष्य को स्थूल ऐन्द्रिक सुखों तक ही सीमित नहीं रखता है, वरन् कला, साहित्य, मैत्री और सामाजिक सम्पर्क के सूक्ष्म सुखों को भी स्थान देता है। लेमाण्ट परम्परावादी और मानवतावादी आचारदर्शनों में निषेधात्मक और विधयात्मक दृष्टि से भेद स्पष्ट करता है। उसके अनुसार परम्परावादी नैतिक दर्शन में वर्तमान के प्रति उदासीनता और परलोक में सुख प्राप्त करने की इच्छा होती है, यह निषेधात्मक है। इसके विपरीत मानवतावाद वर्तमान जीवन के प्रति आस्था रखता है और उसे सुखी बनाना चाहता है, यह विधायक है । जैन, बौद्ध और वैदिक दर्शन पारलौकिकता के प्रत्यय को स्वीकार करते हैं, और भावी जीवन के अस्तित्व में भी आस्था रखते हैं, लेकिन इस आधार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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