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________________ १३६ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन 1 पेटन और म्यूरहेड आते हैं । ब्रेडले अपने पूर्णतावाद में आत्मसाक्षात्कार पर बल देते हैं । उनका कथन है कि अपने को एक अनन्त पूर्ण के रूप में प्राप्त करो । ब्रेडले अपने नीतिशास्त्र के प्रमुख ग्रंथ 'एथिकल स्टडीज' में इस बात का प्रतिपादन करते हैं कि व्यक्ति का नैतिक साध्य एक अनन्त पूर्ण आत्मा के रूप में आत्मसाक्षात्कार करना है । पूर्णतावाद की सामान्य विशेषताओं को निम्न रूप में रखा जा सकता है -- ( १ ) परमशुभ वासनाओं का बुद्धि के द्वारा व्यवस्थापन एवं नियन्त्रण करना है । (२) नैतिक जीवन की प्रक्रिया आत्मत्याग के द्वारा आत्मलाभ की है । क्षुद्र, पाशविक वासनामय एवं इन्द्रियपरक आत्मा के त्याग के द्वारा उच्च एवं सामाजिक आत्मा का लाभ ही नैतिक विकास की प्रक्रिया है । (३) नैतिकता आध्यात्मिक तत्त्व के अनन्त विकास की प्रक्रिया है । ( ४ ) पूर्णतावाद नैतिकता के आन्तरिक पक्ष अर्थात् चरित्र विकास एवं वासनाओं के परिमार्जन पर बल देता है । ( ५ ) वह अपनी क्षमताओं को पहचान कर उनके पूर्ण प्रकटन पर बल देता है । (६) मनुष्य होने के लिए सामाजिक होना आवश्यक है यद्यपि सामाजिकता भी अन्तिम नहीं है, सामाजिकता से भी ऊपर उठना आवश्यक है । इस प्रकार वह सामाजिकता और नैतिकता के क्षेत्र के अतिक्रमण पर बल देता है । तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाय तो सभी मोक्षलक्षी दर्शन पूर्णतावाद के समर्थक हैं । श्री सङ्गमलाल पाण्डे लिखते हैं कि वास्तव में हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म के नीतिशास्त्र बहुत कुछ एकसमान हैं । वे सभी मनुष्य को पूर्ण होने की शिक्षा देते हैं। तीनों धर्मों का पूर्णतावाद पर त्रिवेणीसङ्गम होने के कारण पूर्णतावाद भारतीय नीतिशास्त्र का सर्वमान्य सिद्धान्त हो गया है । " जिस प्रकार पूर्णतावाद नैतिक साध्य के रूप में भावनाम्य और बुद्धिमय दोनों ही पक्षों को स्वीकार करता है और बुद्धि के द्वारा भावनाओं के अनुशासन पर बल देता है, उसी प्रकार जैन दर्शन भी मोक्ष के नैतिक साध्य में भावनात्मक और बौद्धिक दोनों ही पक्षों को स्वीकार करता है तथा यह मानता है कि व्यावहारिक जीवन में कषाययुक्त आत्मा को ज्ञानात्मा से अनुशासित होना चाहिए। जैन दर्शन के अनुसार भी कषाय आत्मा का त्याग और ज्ञान, दर्शन और चारित्र गुण से युक्त शुद्ध आत्मा का लाभ नैतिक जीवन का आवश्यक अंग है । जैन दर्शन और पूर्णतावाद इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि नैतिकता आध्यात्मिक तत्व ( आत्मा ) के अनन्त विकास की . प्रक्रिया है । यद्यपि पूर्णतावाद और विशेषकर ब्रेडले का दृष्टिकोण यह स्वीकार करता है कि अनन्त विकास की प्रक्रिया भी अनन्त है और कभी समाप्त नहीं होती जबकि जैन दर्शन मानता है कि व्यक्ति अनन्त विकास की इस प्रक्रिया में पूर्णता तक पहुँच सकता है । पूर्णतावाद आदर्श के यथार्थ बन जाने की सम्भावना में विश्वास नहीं करता जबकि जैन दर्शन यह मानता है कि नैतिक पूर्णता का यह आदर्श यथार्थ १. नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० ३०५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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