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________________ १३४ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन की अन्य कोई क्योंकि चोरी को अनैतिक है । उदाहरणार्थ, चोरी करने को लीजिए। यदि कोई व्यक्ति चोरी को अपने आचरण का व्यक्तिगत नियम बनाता है, तो उसे यह भी देखना होगा कि क्या वह चोरी को उसी समय सार्वभौम नियम बना सकता है ? स्पष्ट है कि वह यह कभी नहीं चाहेगा कि उसके द्वारा चुराये माल चोरी करे । इस प्रकार चोरी सार्वभौम नियम नहीं हो सकती, सार्वभौम बनाने पर चोरी का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा । इसी प्रकार हिंसा, असत्य, बेईमानी आदि अवगुण भी सार्वभौम नियम नहीं बनाये जा सकते । इसलिए वे सभी अनैतिक हैं । कांट के इस सूत्र का आशय यही है कि हम जैसा व्यवहार अपने प्रति चाहते हैं वैसा ही आचरण दूसरों के प्रति करें हम अपने बारे में जैसी इच्छा करें वैसी ही इच्छा दूसरे के बारे में भी करें। जैन दर्शन और अन्य भारतीय दर्शनों में भी इसे ही नैतिक नियम का सर्वस्व माना गया है । जैन, बौद्ध एवं वैदिक आचारदर्शनों में भी शुभाशुभत्व के प्रतिपादन के रूप में यही सिद्धान्त स्वीकृत है । जैन आचारदर्शन में भी कर्म के शुभाशुभत्व का निर्णायक यही आत्मवत् दृष्टि का सिद्धान्त है । गीता और बौद्ध आचारदर्शन में भी इस सिद्धान्त का समर्थन मिलता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि कांट का सार्वभौम विधान का सूत्र आत्मवत् दृष्टि के सिद्धान्त के रूप में भारतीय परम्परा में ही स्वीकृत रहा है । " कांट के प्रकृति विधान के सूत्र का आशय यह है कि जो कर्म रूपता और सोद्देश्यता के अनुरूप हैं वे ही करने चाहिए । इस सूत्र का यह भी हो सकता है कि स्वभाव के अनुरूप ही कर्म करना चाहिए। सिद्धान्त का प्रतिपादन गीता में स्वधर्म सिद्धान्त के रूप में हुआ है । गीता में कृष्ण कहते हैं कि ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुरूप ही दर्शन के अनुसार यह कहना पड़ेगा कि आत्मा का जो स्वभावदशा है उसी से हमारे कर्म निःसृत होने चाहिए । निःसृत होते हैं, वे ही नैतिक होते हैं । विभावदशा में होनेवाले कर्म अनैतिक हैं । आचरण करते हैं । " जैन निज स्वभाव है या जो जो कर्म स्वभावदश । से कांट के स्वयं साध्य के सूत्र का आशय यह है कि मनुष्य स्वयं साध्य है और उसको किसी दूसरे मनुष्य के लिए साधन नहीं बनना चाहिए । यदि व्यक्ति अपनी आत्मा को साध्य न बनाकर स्वयं को किसी अन्य का साधन बनाता है तो उसका यह कर्म नैतिक नहीं माना जायेगा । जैन दर्शन में ऐसा कोई निर्देश उपलब्ध नहीं है । इसके विपरीत अनेक स्थितियों में व्यक्ति को दूसरे के हित का साधन बनने को कहा गया है । यदि हम इस सिद्धान्त का यह आशय स्वीकार करें कि मानवता का ( चाहे वह हमारे स्वयं के अन्दर हो अथवा किसी अन्य व्यक्ति में ) सम्मान करना चाहिए तो इस रूप में वह जैन दर्शन में भी स्वीकृत हो सकता है । एक अन्य अपेक्षा से भी १. (अ) महाभारत, शान्तिपर्व; उद्घृत-नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० २७०. (आ) पञ्चतन्त्र, ४११०२. २. गीता, ३।३६. प्रकृति की एक एक आशय कांट के इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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