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________________ भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त १३१ यद्यपि जैन दर्शन में समायोजन का अर्थ आन्तरिक समत्व से है। उसकी दृष्टि में बाह्य समायोजन इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। उसमें समायोजन का अर्थ चेतना का स्वस्वभाव के अनुरूप होना है। इस प्रकार विकासवाद और जैन दर्शन दोनों ही • समायोजन को स्वीकार करते हैं। लेकिन जहाँ विकासवाद व्यक्ति और परिवेश के मध्य समायोजन को महत्त्व देता है, वहाँ जैन दर्शन मनोवृत्तियों और स्वस्वभाव के मध्य समायोजन को आवश्यक मानता है। विकासवाद में समायोजन जीवनरक्षण के लिए है, जबकि जैन दर्शन में समायोजन आत्मा ( स्वस्वभाव ) के रक्षण लिए है। विकासवाद का तीसरा प्रत्यय 'विकास की प्रक्रिया में सहगामी होना' है । जो कर्म विकास को अवरुद्ध करते हैं और बाधक बनते हैं वे अनैतिक हैं, और जो कर्म विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं वे नैतिक हैं। जैन दर्शन में विकास का प्रत्यय तो आया है, लेकिन भौतिक विकास का जो रूप विकासवाद में मान्य है, वह जैन दर्शन में उपलब्ध नहीं है । जैन दर्शन आत्मा के आध्यात्मिक विकास पर जोर देता है और इस दृष्टि से वह अवश्य ही उन कर्मों को नैतिक मानता है जो आत्मविकास में सहायक हैं और उन कर्मों को अनैतिक मानता है जो आत्मिक शक्तियों के विकास में बाधक हैं । जैन दर्शन के अनुसार विकास का सर्वोच्च रूप आत्मा की ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक और सङ्कल्पात्मक शक्तियों की पूर्णता की स्थिति है। जब आत्मा में ये शक्तियाँ पूर्णतया प्रकट हो जाती हैं और उनपर कोई आवरण या बाधकता नहीं होती, तभी नैतिक पूर्णता प्राप्त होती है। इस प्रकार जैन दर्शन विकास के प्रत्यय को स्वीकार करते हुए भी विकासवाद से थोड़ा भिन्न है । स्पेन्सर का विकासवादी दर्शन और जैन दर्शन पुनः एक स्थान पर एकदूसरे के निकट आते हैं। स्पेन्सर के अनुसार विकास की अवस्था में नैतिकता सापेक्ष होती है और विकास की पूर्णता पर नैतिकता निरपेक्ष बन जाती है। जैन दर्शन भी आध्यात्मिक विकास की अवस्था में नैतिक सापेक्षता को स्वीकार करता है । उसके अनुसार भी हम जैसे-जैसे आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया में ऊपर उठते जाते हैं,. वैसे-वैसे नैतिक बाध्यताओं और नैतिक सापेक्षताओं से ऊपर उठते हुए नैतिक निरपेक्षता की ओर आगे बढ़ते हैं। ___स्पेन्सर ने जीवन की लम्बाई और चौडाई को नैतिक प्रतिमान बनाने का प्रयास किया है। जैन दर्शन जीवनरक्षण की बात करते हुए भी स्पेन्सर की जीवन की लम्बाई और चौड़ाई के नैतिक प्रतिमान को स्वीकार नहीं करता । स्पेन्सर के अनुसार जीवन की लम्बाई का अर्थ है दीर्घायु होना और चौड़ाई का अर्थ है जीवन की सक्रियता या कर्मठता । जैन दर्शन स्पेन्सर की उपयुक्त मान्यताओं को समुचित नहीं मानता, क्योंकि एक महापुरुष को अल्पायु होने के कारण अनैतिक नहीं कहा जा सकता और एक डाकू को शारीरिक दृष्टि से कर्मठ होने पर नैतिक नहीं कहा जा सकता। जीवनवृद्धि का सच्चा अर्थ तो सद्गुणों की वृद्धि है। जैन दार्शनिकों ने जीवनरक्षण की अपेक्षा सद्गुणों के रक्षण को अधिक महत्त्वपूर्ण माना है। वह तो सद्गुणों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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