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________________ १०६ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भिन्नता का बोध करती है, वही नैतिक मूल्यों की द्रष्टा भी है। नैतिक मूल्यों को स्वीकार किये बिना हम भिन्न-भिन्न प्रकार के आवेगों का अन्तर नहीं कर सकते । यदि इसका आधार पसन्दगी या रुचि है, तो फिर पसन्दगी या नापसन्दगी के भावों की उत्पत्ति का आधार क्या है ? क्यों हम चौर्य कर्म को नापसन्द करते हैं और क्यों ईमानदारी को पसन्द करते हैं ? नैतिक भावों की व्याख्या मात्र पसन्दगी और नापसन्दगी के रूप में नहीं की जा सकती है। मानवीय पसन्दगी या नापसन्दगी अथवा रुचि केवल मन की मौज या मन की तरंग ( Whim ) पर निर्भर नहीं है । इन्हें पूरी तरह आत्मनिष्ठ ( Subjective ) नहीं माना जा सकता, इनके पीछे एक वस्तुनिष्ठ आधार भी होता है। आज हमें उन आधारों का अन्वेषण करना होगा जो हमारी पसन्दगी और नापसन्दगी को बनाते या प्रभावित करते हैं। वे कुछ आदर्श, सिद्धान्त, दृष्टियाँ या मूल्यबोध हैं जो हमारी पसन्दगी या नापसन्दगी को बनाते हैं और जिनके आधार पर हमारी रुचियाँ गठित होती हैं। मानवीय रुचियाँ और मानवीय पसन्दगी या नापसन्दगी आकस्मिक एवं प्राकृतिक ( Natural ) नहीं है । जो तत्त्व इनको बनाते हैं, उनमें नैतिक मूल्य भी है। ये पूर्णतया व्यक्ति और समाज की रचना भी नहीं हैं, अपितु व्यक्ति के मूल्यसंस्थान के बोध से भी उत्पन्न होती हैं । वस्तुतः मूल्यों की सत्ता अनुभव की पूर्ववर्ती है; मनुष्य मूल्यों का द्रष्टा है, सृजक नहीं। अतः रुचिसापेक्षता के आधार पर स्वयं नीति की मूल्यवत्ता को निरस्त नहीं किया जा सकता है। दूसरे, यदि हम औचित्य एवं अनौचित्य का आधार सामाजिक उपयोगिता को मानते हैं, तो यह भी ठीक नहीं। मेरे व्यक्तिगत स्वार्थों से सामाजिक हित क्यों श्रेष्ठ एवं वरेण्य है ? इस प्रश्न का हमारे पास क्या उत्तर होगा ? सामाजिक हितों की वरेण्यता का उत्तर नीति की मूल्यवत्ता को स्वीकार किये बिना नहीं दिया जा सकता है। इस प्रकार परिवर्तनशीलता के नाम पर स्वयं नीति की मूल्यवत्ता पर प्रश्न-चिह्न नहीं लगाया जा सकता। नैतिक मूल्यों के अस्तित्व की स्वीकृति में ही उनकी परिवर्तनशीलता का कोई अर्थ हो सकता है, उनके नकारने में नहीं। यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि समाज भी नैतिक मूल्यों का सृजक नहीं है। समाज किन्हीं आचरण के प्रारूपों को विहित या अविहित मान सकता है। किन्तु सामाजिक विहितता और अविहितता नैतिक औचित्य या अनौचित्य से भिन्न है । एक कर्म अनैतिक हुए भी विहित माना जा सकता है अथवा नैतिक होते हुए भी अविहित माना जा सकता है । कंजर जाति में चोरी, आदिम कबीलों में नरबलि या मुस्लिम समाज में बहु-पत्नीप्रथा विहित है। राजपूतों में लड़की को जन्मते ही मार डालना कभी विहित रहा था । अनेक देशों में वेश्यावृत्ति, समलैंगिकता, मद्यपान आज भी विहित और वैधानिक है--किन्तु क्या इन्हें नैतिक कहा जा सकता है ? नग्नता को, शासनतन्त्र की आलोचना को, अविहित एवं अवैधानिक माना जा सकता है, किन्तु इससे नग्न रहना या शासक वर्ग के गलत कार्यों की आलोचना अनैतिक नहीं कहा जा सकेगा। मानवों के समुदाय विशेष के द्वारा किसी कर्म को विहित या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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