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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
__ कोई आचरण केवल इसलिए सत् या उचित नहीं होता है कि वह किसी समाज में स्वीकृत होता रहा है, अपितु वास्तविकता तो यह है कि इसलिए स्वीकृत होता रहा है क्योंकि वह सत् है । किसी आचरण का सत् या असत् होना अथवा सदाचार या दुराचार होना स्वयं उसके स्वरूप पर निर्भर होता है, न कि उसके आचरित अथवा अनाचरित होने पर । महाभारत में दुर्योधन ने कहा था---
जानामि धर्म न च मे प्रवत्ति ।
जानामि अधर्म न च मे निवृत्ति ।। अर्थात् मैं धर्म को जानता हूँ किन्तु उस ओर प्रवृत्त नहीं होता, उसका आचरण नही करता। मैं अधर्म को भी जानता हूँ परन्तु उससे विरत नहीं होता, निवृत्त नहीं होता। अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि किसी आचरण का सदाचार या दुराचार होना इस बात पर निर्भर नहीं है कि वह किसी वर्ग या समाज द्वारा स्वीकृत या अस्वीकृत होता रहा है । सदाचार और दुराचार की मूल्यवत्ता उनके परिणामों पर या उस साध्य पर निर्भर होती है, जिसके लिए उनका आचरण किया जाता है। आचरण की मूल्यवत्ता, स्वयं आचरण पर नहीं अपितु उसके अभिप्ररक या साध्य या परिणाम पर निर्भर होती है । यद्यपि किसी आचरण की मूल्यवत्ता का निर्धारण उसके समाज पर पड़नेवाले प्रभाव के आधार पर किया जाता है, फिर भी उसकी मूल्यवत्ता का अन्तिम आधार तो कोई आदर्श या साध्य ही होता है। अतः हम जब सदाचार के मापदण्ड की बात करते हैं तो हमें उस परम मूल्य या साध्य पर ही विचार करना होगा जिसके आधार पर किसी कर्म को सदाचार या दुराचार की कोटि में रखा जाता है। वस्तुतः मानव जीवन का परम साध्य ही वह तत्त्व है जो सदाचार का मानदण्ड या कसौटी बनता है।
२. जैन दर्शन में सदाचार का मानदण्ड ___अब मूल प्रश्न यह है कि परम मूल्य या चरम साध्य क्या है ? जैन दर्शन अपने चरम साध्य के बारे में स्पष्ट है। उसके अनुसार, व्यक्ति का चरम साध्य मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति है। वह यह मानता है कि जो आचरण निर्वाण या मोक्ष की दिशा में ले जाता है वही सदाचार की कोटि में आता है । दूसरे शब्दों में, जो आचरण मुक्ति का कारण है, वह सदाचार है और जो आचरण बन्धन का कारण है, वह दुराचार है । किन्तु यहाँ पर हमें यह भी स्पष्ट करना होगा कि उसका मोक्ष अथवा निर्वाण से क्या तात्पर्य है । जैन धर्म के अनुसार निर्वाण या मोक्ष स्वभावदशा एवं आत्मपूर्णता की प्राप्ति है। वस्तुतः हमारा जो निजस्वरूप है उसे प्राप्त कर लेना अथवा हमारी बीजरूप क्षमताओं को विकसित कर आत्मपूर्णता की प्राप्ति ही मोक्ष है । उसकी पारम्परिक शब्दावली में परभाव से हटकर स्वभाव में स्थित हो जाना ही मोक्ष है । यही कारण था कि जैन दार्शनिकों ने धर्म की एक विलक्षण एवं महत्त्वपूर्ण परिभाषा दी है । उनके अनुसार, धर्म वह है 'जो वस्तु का निजस्वभाव है ( वत्थुसहावो धम्मो )' । व्यक्ति का धर्म या साध्य वही हो सकता है जो उसकी १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा. ७८.
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