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________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आधारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन सापेक्ष मानना ही एक कुछ नियम मौलिक उदाहरणार्थ, भारऐसा वर्गीकरण हमें पर सभी के लिए समान नियमों का प्रतिपादन सम्भव नहीं है । अतः साध्यपरक नीति को या नैतिक साध्य को निरपेक्ष और साघनपरक नीति को यथार्थ दृष्टिकोण हो सकता है । ( ३ ) तीसरे, होते हैं और कुछ नियम उन मौलिक नियमों के तीय परम्परा में सामान्य धर्म और विशेष धर्म मिलता है । जैन परम्परा में भी एक ऐसा ही वर्गीकरण से है । यहाँ हमें ध्यान रखना चाहिए कि साधारणतया ही निरपेक्ष एवं अपरिवर्तनीय माने जा सकते हैं, वर्तनीय ही होते हैं । यद्यपि हमें यह मानने में कि अनेक स्थितियों में सामान्य नियमों के भी भी हो सकते हैं, फिर भी यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि अपवाद को कभी भी नियम का स्थान नहीं दिया जा सकता । यहाँ एक बात जो विचारणीय है वह यह कि मौलिक नियमों की निरपेक्षता भी उनकी अपरिवर्तनशीलता या उनके स्थायित्व के आधार पर ही है, साध्य की अपेक्षा से तो वे भी सापेक्ष हो सकते हैं । जो नैतिक विचारधाराएँ मात्र निरपेक्षतावाद को स्वीकार करती हैं वे यथार्थ की भूमिका को भूलकर मात्र आदर्श की ओर देखती हैं । वे नैतिक आदर्श को तो प्रस्तुत कर देती हैं किन्तु उस मार्ग का निर्धारण करने में सफल नहीं हो पातीं जो उस साध्य एवं आदर्श तक ले जाता है, क्योंकि नैतिक आचरण एवं व्यवहार तो परिस्थितिसापेक्ष होता है । नैतिकता एक लक्ष्योन्मुख गति है । लेकिन यदि उस गति में व्यक्ति की दृष्टि मात्र उस यथार्थ भूमिका तक हो, जिसमें वह खड़ा है, सीमित है तो वह कभी भी लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता, वह पथभ्रष्ट हो सकता है । दूसरी ओर वह व्यक्ति, जो गन्तव्य की ओर तो देख रहा है किन्तु उस मार्ग को नहीं देख रहा है जिसमें वह गति कर रहा है, मार्ग में वह ठोकर खाता है और कटकों से अपने को पद - विद्ध कर लेता है । जिस प्रकार चलने के उपक्रम में हमारा काम न तो मात्र सामने देखने से चलता है और न मात्र नीचे देखने से ही, उसी प्रकार नैतिक प्रगति में हमारा काम न तो मात्र निरपेक्ष दृष्टि से चलता है और न मात्र सापेक्ष दृष्टि से चलता है । निरपेक्षतावाद उस स्थिति की उपेक्षा कर देता है जिसमें व्यक्ति खड़ा है, जब कि सापेक्षतावाद उस आदर्श या साध्य की उपेक्षा करता है जो कि गन्तव्य है । इसी प्रकार निरपेक्षतावाद सामाजिक नीति की उपेक्षा कर मात्र वैयक्तिक नीति पर बल देता है, किन्तु व्यक्ति समाजनिरपेक्ष नहीं हो सकता । पुनः निरपेक्षवादी नीति में साध्य की सिद्धि ही प्रमुख होती है, किन्तु वह साधन उपेक्षित बना रहता है जिसके बिना साध्य की सिद्धि सम्भव नहीं है | अतः सम्यक् नैतिक जीवन के लिए नीति में सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों तत्त्वों की अवधारणा को स्वीकार करना आवश्यक है । ७८ Jain Education International नैतिक नियमों में सहायक होते हैं; (वर्णाश्रम धर्म ) मूलगुण और उत्तरगुण नाम सामान्य या मूलभूत नियम विशेष नियम तो कोई आपत्ति नहीं अपवाद हो सकते हैं For Private & Personal Use Only सापेक्ष एवं परिहोनी चाहिए और वे नैतिक www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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