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________________ वादाष्टकम् शुष्कवादो विवादश्च धर्मवादस्तथाऽपरः । इत्येष त्रिविधो वादः कीर्तितः परमर्षिभिः ॥ १ ॥ शुष्कवाद, विवाद तथा धर्मवाद - इस प्रकार यह वाद श्रेष्ठ ऋषियों ( मुनियों ) द्वारा तीन प्रकार का कहा गया है ।। १ ।। अत्यन्तमानिना साध क्रूरचित्तेन च दृढम् । धर्मद्विष्टेन मूढेन शुष्कवादस्तपस्विनः ॥ २ ॥ अत्यन्त अभिमानी, क्रूर हृदय, धर्मद्वेषी तथा मूर्ख के साथ तपस्वियों अर्थात् सवृत्ति वाले लोगों का वाद शुष्कवाद या अनर्थवाद कहा जाता है ।। २ ।। विजयेऽस्यातिपातादि लाघवं तत्पराजयात् । धर्मस्येति द्विधाऽप्येष तत्त्वतोऽनर्थवर्धनः ॥ ३ ॥ ( उन अभिमानी आदि व्यक्तियों के साथ वाद में तपस्वी के ) विजयी होने पर उन अभिमानी आदि द्वारा अपघात आदि के कारण और उनसे पराजित होने से धर्म के माहात्म्य की हानि, इस प्रकार तत्त्वत: अर्थात् परमार्थ की दृष्टि से शुष्कवाद विजय और पराजय - दोनों ही प्रकार से अनर्थ को बढ़ाने वाला होता है ।। ३ ।। लब्धिख्यात्यर्थिना तु स्याहुःस्थितेनाऽमहात्मना । छलजातिप्रधानो यः स विवाद इति स्मृतः ॥ ४ ॥ सुवर्णादि के लाभ तथा कीर्ति की कामना वाले अज्ञानी तथा अनुदार चित्त वाले व्यक्ति के साथ वाक्-छल और जाति की प्रधानता वाला वाद-विवाद कहा गया है ॥ ४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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