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________________ तपोऽष्टकम् दुःखात्मकं तपः केचिन्मन्यन्ते तन्न युक्तिमत् । कर्मोदयस्वरूपत्वाबलीवर्दादि दुःखवत् ॥ १ ॥ कुछ आगम के सार तत्त्व से अनभिज्ञ लोग तप को दुःखात्मक मानते हैं परन्तु वह युक्तिसङ्गत नहीं है, क्योंकि मानवीय दुःख तो बैलादि के दुःखों की तरह कर्मोदय के कारण हैं, तप के कारण नहीं ।। १ ॥ सर्व एव च दुःख्येवं तपस्वी सम्प्रसज्यते । विशिष्टस्तद्विशेषेण सुधनेन धनी यथा ॥ २ ॥ और इस प्रकार तप को दुःखरूप मानने पर सभी दुःखी व्यक्ति तपस्वी हो जाएँगे, जिस प्रकार प्रभूत धन होने से किसी व्यक्ति को धनी कहा जाता है, उसी प्रकार विशिष्ट दु:ख के कारण कुछ व्यक्ति विशेष तपस्वी कहे जाएँगे ।। २ ।। महातपस्विनश्चैव त्वन्नीत्या नारकादयः । शमसौख्यप्रधानत्वाद्योगिनस्त्वतपस्विनः ॥ ३ ॥ ( इस पर प्रतिपक्षी तर्क देता है कि सभी दुःखी जनों को तपस्वी कहने में क्या दोष ? इसके प्रत्युत्तर में आचार्य कहते हैं )- इस प्रकार तुम्हारी नीति से नारक आदि महातपस्वी कहे जाएँगे और शम रूपी सुख की प्रधानता के कारण ( दु:खी न होने से ) योगी अतपस्वी कहे जाएँगे ॥ ३ ॥ युक्त्यागमबहिर्भूतमतस्त्याज्यमिदं बुधैः । अशस्तध्यानजननात् प्राय आत्मापकारकम् ॥ ४ ॥ प्राय: आत्मा का अपकारक ( अहित करने वाला ), युक्ति से परे और आगम में प्रतिपादित न होने से तथा अप्रशस्त ध्यान उत्पन्न करने का कारण होने से यह देह-दण्डनरूप तप बुद्धिमानों द्वारा त्याज्य है ।। ४ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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