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अष्टकप्रकरणम्
अदानेऽपि च दीनादेरप्रीतिर्जायते ध्रुवम् । ततोऽपि शासनद्वेषस्ततः कुगतिसन्ततिः ॥ ५ ॥
( अप्रच्छन्न भोजन करने से क्षुधा-पीड़ित याचकादि के माँगने पर उन्हें देने से जो पुण्यादि बन्ध होता है, उसके परिहार के लिए यदि उन्हें दान न दिया जाय तो इस विकल्प के परिणाम पर विचार करते हुए आचार्य कहते हैं ) - आहारादि का दान न देने पर निश्चित रूप से दीनादि के (मन में ) अप्रसन्नता उत्पन्न होती है, शासन के प्रति द्वेष ( उत्पन्न होता है ) और फलतः याचकों की कुगति की परम्परा अर्थात् नारक, तिर्यञ्च, कुनर, कुदेव गतियों में उत्पन्न होने की परम्परा प्रारम्भ होती है ॥ ५ ॥
निमित्तभावतस्तस्य सत्युपाये प्रमादतः । शास्त्रार्थबाधनेनेह पापबन्ध उदाहृतः ॥ ६ ॥
प्रच्छन्न भोजन रूप उपाय होने पर भी प्रमाद से प्रकट में भोजन करने वाला साधु याचकादि द्वारा कृत शासन-द्वेष में कारणभूत होने से और शास्त्र की मर्यादा का उल्लङ्घन करने के कारण पापबन्ध का भागी होता
शास्त्रार्थश्च प्रयत्नेन यथाशक्ति मुमुक्षुणा । अन्यव्यापारशून्येन कर्तव्यः सर्वदैव हि ॥ ७ ॥
मोक्षमार्गाभिलाषी को अन्य लोक-व्यवहार रूप प्रवृत्तियों से विरत होकर सदैव प्रयत्नपूर्वक यथाशक्ति शास्त्रसम्मत आचरण करना चाहिए, अर्थात् शास्त्रोक्त प्रच्छन्न भोजन करना चाहिए ॥ ७ ॥
एवं युभयथाप्येतद्दुष्टं प्रकटभोजनम् । यस्मानिदर्शितं शास्त्रेः ततस्त्यागोऽस्य युक्तिमान् ॥ ८ ॥
इस प्रकार प्रकट भोजन, प्रकट भोजनकर्ता श्रमण द्वारा याचकादि को दान देने से और न देने से, दोनों प्रकार से दोषयुक्त होता है। इस कारण शास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट प्रकट भोजन का त्याग करना ही युक्तिसङ्गत है ।। ८ ।।
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