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________________ ७ प्रच्छन्नभोजनाष्टकम् सर्वारम्भनिवृत्तस्य मुमुक्षो वितात्मनः । पुण्यादिपरिहाराय मतं प्रच्छन्नभोजनम् ॥ १ ॥ सम्पूर्ण सावध प्रवृत्तियों से निवृत्त अर्थात् तीन करण और तीन योग से अशुभ प्रवृत्तियों के त्यागी पुनीत अन्त:करण वाले मुमुक्षु के लिए पुण्यबन्ध आदि का परिहार करने के लिए एकान्त भोजन सम्मत है ॥ १ ॥ भुञ्जानं वीक्ष्य दीनादिर्याचते क्षुत्प्रपीडितः । तस्यानुकम्पया दाने पुण्यबन्धः प्रकीर्तितः ॥ २ ॥ उसे आहार ग्रहण करते हुए देखकर क्षुधा-पीड़ित दीनादि आहार की याचना कर सकते हैं। उन दीनादि पर अनुकम्पा से दान देने में भिक्षु को पुण्यबन्ध कहा गया है ।। २ ।। भवहेतुत्वतश्चायं नेष्यते मुक्तिवादिनाम् ।। पुण्यापुण्यक्षयान्मुक्तिरिति शास्त्रव्यवस्थितेः ॥ ३ ॥ यह पुण्यबन्ध संसार-चक्र का हेतु होने से मुक्तिवादियों ( मुमुक्षुओं के लिए ) इष्ट नहीं है। आप्त-प्रणीत आगम में यह व्यवस्था दी गयी है कि पुण्य और पाप के क्षय से मुक्ति होती है ॥ ३ ॥ प्रायो न चानुकम्पावांस्तस्यादत्वा कदाचन । तथाविधस्वभावत्त्वाच्छक्नोति सुखमासितुम् ॥ ४ ॥ ( यदि यह कहा जाय कि अप्रच्छन्न अर्थात् खुले में भोजन करते हुए भी यदि दीनादि को भिक्षा न दें तो पुण्यादि बन्ध नहीं होता है तो इसके प्रत्युत्तर में आचार्य कहते हैं - ) प्राय: दयावान उस प्रकार का ( दयालु ) स्वभाव होने से दीनादि को दान न देने पर कभी सुखपूर्वक नहीं रह सकता ।। ४ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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