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________________ महादेव के रूप में लोकप्रिय हो चुके थे। महाभारत से लेकर जिनसहस्रनाम तक आदिनाथ ऋषभदेव और महादेव शिव के नामों को समानान्तर रूप से प्रज्ञापित किया जाने लगा था। हरिभद्र ने दोनों व्यक्तित्वों में एकरूपता को प्रस्थापित करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इस विषय में मेरे अनेक निबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं इसलिए उनकी पुनरावृत्ति करने की आवश्यकता नहीं है। २. हरिभद्र ने अपने इस प्रकरण में जैनदर्शन के इस तथ्य को भी बार-बार दुहराया है कि द्रव्य और भाव में भाव भले ही मुख्य है पर द्रव्य भाव का निमित्त बनकर रहता है इसलिए द्रव्यनय की उपेक्षा नहीं की जा सकती। देवपूजा के लिए शारीरिक स्नानादि द्रव्य स्नान है और ध्यानरूपी जल से कर्मरूपी मल को शद्धि भाव स्नान है। द्रव्य स्नान भाव स्नान का निमित्त है और भाव स्नान करनेवाला ही सही अर्थों में स्नातक है। ३. पुष्पादि द्वारा की गई वीतरागदेव की पूजा अशुद्ध पूजा है। शुद्ध पूजा तो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, गुरुभक्ति, तप और ज्ञान इन आठ सत्पुष्पों या भावपुष्पों से की गई पूजा शुद्ध पूजा मानी जाती है। इसी से कर्मक्षय होता है दीक्षा का उद्देश्य मोक्ष है और आगम में मोक्ष को ज्ञान और ध्यान का फल कहा गया है। यज्ञादि कार्य सकाम होते हैं जिन्हें मोक्ष का कारण नहीं माना जा सकता। निष्काम होना ही मोक्ष का कारण है। यहाँ 'सच्छात्र संस्थिति:' (४.७) लिखकर हरिभद्र ने जैन-जैनेतर शास्त्रों में अन्तर दिखाया है। ५. भिक्षा तीन प्रकार की होती है- सर्वसम्पत्करी, पौरुषघ्नी और वृत्तिभिक्षा। इनमें प्रथम भिक्षा सर्वोत्कृष्ट है, अन्तिम मध्यमकोटि की है और पौरुषघ्नी भिक्षा जघन्यकोटि की मानी जाती है। ६. सर्वसम्पत्करी भिक्षा अनौद्देशिक और असंकल्पित होती है जिसकी प्राप्ति सरल नहीं होती है। इसलिए यतिधर्म को दुष्कर माना गया है। ७. यति के लिए यह निर्देश दिया गया है कि वह अपना आहार एकान्त में करे। प्रकट भोजन, प्रकट रूप से आहार करने वाला श्रमण याचकादि को दान देने और न देने से दोनों प्रकार से दोषयुक्त होता है। ८. भोजन, यश आदि ऐहिक कामनादि से युक्त प्रत्याख्यान द्रव्य प्रत्याख्यान है.जो निन्द्य माना जाता है और सम्यक्चारित्र भाव प्रत्याख्यान है जो मोक्षसाधक कहा गया है। ९. आत्मपरिणतिरूप ज्ञान वैराग्य का कारण है और तत्त्व संवेदनरूप ज्ञान मोक्ष का कारण है। १०. सज्ज्ञानजन्य वैराग्य आत्मादि तत्त्वों के ज्ञान से होता है और वही मुक्ति का साधन माना गया है। ११. तप दुःखात्मक नहीं होता है। वह तो वस्तुत: विशिष्ट संवेग, विशिष्ट शम रूप उत्तम तत्त्व है और प्रशम सुखात्मक है। १२. शुष्कवाद, विनयवाद और धर्मवाद में से धर्मवाद को सर्वोत्तम माना गया है। इससे धर्मप्रभावना, मैत्री आदि प्रशस्त फल मिलता है। १३. धर्मवाद धर्म का साधन स्वरूप है और मोक्ष-सिद्धि देने वाला है। १४. आत्मा का एकान्त नित्यत्व पक्ष सही नहीं है। उसे परिणमनशील भी माना जाना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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