SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 12 अष्टकप्रकरणम् या पुनर्भावजैः पुष्पैः शास्त्रोक्तिगुणसङ्गतैः । परिपूर्णत्वतोऽम्लानैरत एव सुगन्धिभिः ॥ ५ ॥ जो पूजा आगम में वर्णित, पूर्ण रूप से विकसित अम्लान एवं सुगन्धि से युक्त ( अहिंसादि ) भावसुमनों से की जाती है, वह शुद्ध पूजा अहिंसासत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमसङ्गता । गुरुभक्तिस्तपो ज्ञानं सत्पुष्पाणि प्रचक्षते ॥ ६ ॥ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, गुरुभक्ति, तप और ज्ञान - ये ( आठ ) शुद्धपूजा के सत्पुष्प या भाव-पुष्प कहे गए एभिर्देवाधिदेवाय बहुमानपुरस्सरा । दीयते पालनाद्या तु सा वै शुद्धत्युदाहृता ॥ ७ ॥ इन आठ प्रकार के भाव-पुष्पों का सम्यक् प्रकार से परिपालन ही देवाधिदेव की बहुमानपूर्वक शुद्ध पूजा कही गयी है ॥ ७ ॥ प्रशस्तो ह्यनया भावस्ततः कर्मक्षयो ध्रुवः । कर्मक्षयाच्च निर्वाणमत एषा सतां मता ॥ ८ ॥ इस ( शुद्ध पूजा ) से भाव प्रशस्त होते हैं और उन प्रशस्त भावों से निश्चितरूप से कर्मक्षय होते हैं और कर्मक्षय से निर्वाण होता है, इसलिए सत्पुरुषों को यह भावपूजा - शुद्धपूजा मान्य है ॥ ८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy