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अष्टकप्रकरणम्
या पुनर्भावजैः पुष्पैः शास्त्रोक्तिगुणसङ्गतैः । परिपूर्णत्वतोऽम्लानैरत एव सुगन्धिभिः ॥ ५ ॥
जो पूजा आगम में वर्णित, पूर्ण रूप से विकसित अम्लान एवं सुगन्धि से युक्त ( अहिंसादि ) भावसुमनों से की जाती है, वह शुद्ध पूजा
अहिंसासत्यमस्तेयं
ब्रह्मचर्यमसङ्गता । गुरुभक्तिस्तपो ज्ञानं सत्पुष्पाणि प्रचक्षते ॥ ६ ॥
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, गुरुभक्ति, तप और ज्ञान - ये ( आठ ) शुद्धपूजा के सत्पुष्प या भाव-पुष्प कहे गए
एभिर्देवाधिदेवाय
बहुमानपुरस्सरा । दीयते पालनाद्या तु सा वै शुद्धत्युदाहृता ॥ ७ ॥
इन आठ प्रकार के भाव-पुष्पों का सम्यक् प्रकार से परिपालन ही देवाधिदेव की बहुमानपूर्वक शुद्ध पूजा कही गयी है ॥ ७ ॥
प्रशस्तो ह्यनया भावस्ततः कर्मक्षयो ध्रुवः । कर्मक्षयाच्च निर्वाणमत एषा सतां मता ॥ ८ ॥
इस ( शुद्ध पूजा ) से भाव प्रशस्त होते हैं और उन प्रशस्त भावों से निश्चितरूप से कर्मक्षय होते हैं और कर्मक्षय से निर्वाण होता है, इसलिए सत्पुरुषों को यह भावपूजा - शुद्धपूजा मान्य है ॥ ८ ॥
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