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________________ अष्टकप्रकरणम् अधिकारिवशाच्छाने धर्मसाधनसंस्थितिः । व्याधिप्रतिक्रियातुल्या विज्ञेया गुणदोषयोः ॥ ५ ॥ रोग-चिकित्सा के समान शास्त्र में धर्म-साधन की व्यवस्था भी अधिकारी भेद से अर्थात् साधक के गुण-दोषानुसार भिन्न-भिन्न जानना चाहिए ॥ ५ ॥ ध्यानाम्भसा तु जीवस्य सदा यच्छुद्धिकारणम् । मलं कर्म समाश्रित्य भावस्नानं तदुच्यते ॥ ६ ॥ जो स्नान-ध्यानरूपी जल से जीव के कर्मरूपी मल की शुद्धि का सदा कारण है, वह भाव-स्नान कहा जाता है ॥ ६ ॥ ऋषीणामुत्तमं ह्येतन्निर्दिष्टं परमर्षिभिः । हिंसादोषनिवृत्तानां व्रतशीलविवर्धनम् ॥ ७ ॥ निश्चितरूप से श्रेष्ठ ऋषियों द्वारा निर्दिष्ट यह उत्तम भाव-स्नान हिंसादि दोषों से निवृत्त मुनियों के व्रत और शील की अभिवृद्धि करने वाला स्नात्वाऽनेन यथायोगं निःशेषमलवर्जितः । भूयो न लिप्यते तेन स्नातकः परमार्थतः ॥ ८ ॥ जो इस भाव-स्नान द्वारा समुचित रूप से समस्त मल से रहित हो पुन: ( मलिन ) नहीं होता, वही वास्तविक अर्थों में स्नान करने वाला स्नातक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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