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________________ स्नानाष्टकम् द्रव्यतो भावतश्चैव द्विधा स्नानमुदाहृतम् । बाह्यमाध्यात्मिकं चेति तदन्यैः परिकीर्त्यते ॥१॥ द्रव्य और भाव की अपेक्षा से स्नान दो प्रकार का कहा गया है। अन्य ( मतानुयायी ) इन्हें ( क्रमश: ) बाह्य और आध्यात्मिक स्नान कहते जलेन देहदेशस्य क्षणं यच्छुद्धिकारणम् । प्रायोऽन्यानुपरोधेन द्रव्यस्नानं तदुच्यते ॥ २ ॥ जल से किया गया जो स्नान शरीर के भाग-विशेष की क्षणिक शुद्धि का ही कारण है, उसे प्रायः आन्तरिक मल का शोधक न होने से द्रव्यस्नान कहा जाता है ।। २ ।। कृत्वेदं यो विधानेन देवतातिथिपूजनम् । करोति मलिनारम्भी तस्यैतदपि शोभनम् ॥ ३ ॥ भावशुद्धिनिमित्तत्वात्तथानुभवसिद्धितः । कथञ्चिदोषभावेऽपि तदन्यगुणभावतः ॥ ४ ॥ अल्प आरम्भी जो गृहस्थ विधिपूर्वक ( स्नान ) कर देव तथा अतिथि ( साधु-साध्वी ) की पूजा करता है, उसके लिये यह ( द्रव्य-स्नान ) भी शुभ है क्योंकि यह भाव-शुद्धि का निमित्त है। किञ्चित् दोषयुक्त होने पर भी अन्य गुणों से युक्त होने के कारण द्रव्य-स्नान का शुभत्व अनुभवसिद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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