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________________ [ xxii ] तिन्नेव य कोडीसया अट्ठासीइ च होइ कोडीओ । असीइ च सयसहस्सा एवं स्वच्छरे दिण्णं ।। बौद्धों की इस मान्यता का खण्डन करते हुए हरिभद्र ने बताया है कि महावीर के दान की महानता उनकी इस घोषणा 'दान माँगो, दान माँगो'२८ ( वरवरिकात: ) में निहित है। 'वरवरिका' का यह तथ्य आवश्यक-नियुक्ति २९ में प्राप्त होता है - महादानं हि संख्यावदर्थ्यभावाज्जगद्गुरोः । सिद्धं वरवरिकातस्तस्याः सूत्रे विधानतः ।। २६/५ ।। वरवरिआ घोसिज्जइ किमिच्छअं दिज्जए बहुविहीउ । सुरअसुरदेवदाणवनरिंदमहिआण निक्खमणे ।। उन्तीसवें “सामायिकनिरूपणाष्टकम्' में हरिभद्र सामायिक युक्त साधकों की तुलना चन्दन से करते हैं जो उस ( चन्दन ) को काटने वाली कुल्हाड़ी को भी सुवासित कर देते हैं। कर्ता के रूप में रविगुप्त के नाम से उल्लिखित यह दृष्टान्त 'सुभाषितरत्नभाण्डागारम्'३० में भी संगृहीत है --- सजनो न याति वैरं परहितनिरतो विनाशकालेऽपि । छेदऽपि चन्दन तरुः सुरभयति मुखं कुठारस्य ।। जिनेश्वरसूरि कृत अष्टकवृत्ति १ में भी इस दृष्टान्त से सम्बद्ध दो उद्धरण उपलब्ध हैं - अपकार परेऽपि परे कुर्वन्त्युपकारमेव हि महान्तः । सुरभिं करोति वासीं मलयजमणि तक्ष्यमाणमपि ।। यो मामपकरोत्येष तत्वेनोपकरोत्यसौ । शिरामोक्षाधुपायेन कुर्वाण इव नीरुपम् ।। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र ने विषय-प्रतिपादन के साथ-साथ जैन मान्यताओं के समर्थन एवं जैनेतर मत के खण्डन में जैन, बौद्ध और वैदिक ग्रन्थों के अपने उत्कृष्ट ज्ञान का सुन्दर एवं सम्यक् उपयोग किया है। उनके द्वारा उद्धृत गाथा, श्लोक दृष्टान्त आदि से विषय-प्रतिपादन प्रभावोत्पादक हो गया है। सन्दर्भ १. 'तथा चाह महामतिः', अष्टकप्रकरण, प्रकरण १३/श्लोक ४, सम्पादक एवं गुजराती अनुवादक खुशालचन्द, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, १९४१ । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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