SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ xv ] इकतीसवें 'तीर्थकृद्देशनाष्टकम्' में तीर्थङ्कर की धर्मदेशना का प्राणियों पर प्रभाव और उसके द्वारा धर्मदेशना में प्रवृत्त होने के कारणों पर विचार किया गया है। तीर्थङ्कर नामकर्म के उदय के कारण ही वीतरागी होते हुए भी वे धर्मदेशना में प्रवृत्त होते हैं। जगद्गुरु तीर्थङ्कर का मात्र एक वचन भी अनेक जीवों को एक साथ विविध वस्तूविषयक हितकारक प्रतीति कराता है। यदि अभव्य जीवों को जिनवचनों का सत्यार्थ घटित नहीं होता तो उसमें अभव्य जीवों का ही दोष जानना चाहिए, भगवान् का नहीं। क्योंकि उलूक अपने कर्मों के कारण दिन में प्रकाश होने पर भी नहीं देख पाता है। आठ के स्थान पर दस श्लोकों वाले बत्तीसवें 'मोक्षारकम्' में मोक्ष का स्वरूप निरूपित है। इसमें विपक्षियों की इस युक्ति का भी निराकरण किया गया है कि आहारादि के अभाव में सिद्धों को सुख नहीं प्राप्त हो सकता है । हरिभद्र का अभिमत है कि मोक्ष परमसुख से समन्वित है, कभी दुःखमिश्रित नहीं होता और उत्पत्ति के पश्चात् क्षय को प्राप्त नहीं होता है। इस प्रकार संक्षेप में इस कृति का प्रतिपाद्य प्रस्तुत है। 'अष्टकप्रकरण' में सभी प्रकरण एक स्वतन्त्र इकाई हैं, फिर भी ये परस्पर सम्बद्ध माने जा सकते हैं, क्योंकि सभी प्रकरण जैन आचार के व्यावहारिक पक्ष का निरूपण करते हैं, श्रमण एवं श्रावक वर्ग – दोनों को सदाचारी बनने, सूक्ष्म बुद्धि से आगमों के अनुरूप अपने आचार और विचार का परीक्षण करने की शिक्षा देते हैं। इन प्रकरणों में जैनेतरों द्वारा जिन धर्म की कतिपय मान्यताओं के सम्बन्ध में प्रस्तुत विप्रतिपत्तियों का भी हरिभद्र ने निराकरण किया है। अष्टकप्रकरण की एक अन्य प्रमुख विशेषता इसके प्रकरणों का संक्षिप्त होना है। आचार्य द्वारा प्रत्येक प्रकरण को आठ श्लोकों तक सीमित रखा गया है। आठ श्लोकों की मर्यादा कभी-कभी विषय को स्पष्ट करने में बाधक बन जाती है, जो सङ्गत नहीं प्रतीत होता है। इतना होते हुए भी यह प्रकरण आचार्य हरिभद्र की प्रतिभा से उद्भूत एक बहुमूल्य कृति है। अष्टकप्रकरणम् के उद्धरण एवं उनके स्रोत __ आचार्य हरिभद्र ब्राह्मण परम्परा के उच्चकोटि के विद्वान् थे। जैनधर्म अङ्गीकार करने के पश्चात् वे जैन-परम्परा के भी शीर्षस्थ विद्वान् हो गये। दोनों परम्पराओं का गम्भीर एवं गहन ज्ञान, स्वाभाविक रूप से जैनेतर एवं जैन परम्पराओं के क्रमश: खण्डन-मण्डन में महान् वरदान सिद्ध हुआ। महान् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy