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अष्टकप्रकरणम्
अचिन्त्यपुण्यसम्भारसामर्थ्यादेतदीदृशम् तथा चोत्कृष्टपुण्यानां नास्त्यसाध्यं जगत्त्रये ॥ ५ ॥
अचिन्त्य अर्थात् असंख्येय पुण्य सञ्चय की सामर्थ्य के प्रभाव से उनका एक वचन भी अनेक जीवों के लिए विविध प्रकार से हितसाधक होता है, अतः उत्कृष्ट पुण्यवान् आत्माओं के लिए तीनों लोकों में कुछ भी असाध्य नहीं रहता है ॥ ५ ॥
अभव्येषु च भूतार्था यदसौ नोपपद्यते ।
तत्तेषामेव दौर्गुण्यं ज्ञेयं भगवतो न तु ॥ ६ ॥
अभव्य जीवों को भगवान् के वचनों से जो सत्यार्थ की प्रतीति नहीं होती उसमें अभव्य जीवों का ही दोष जानना चाहिये, भगवान् का नहीं || ६ ||
दृष्टश्चाभ्युदये भानोः अप्रकाशो ह्युलूकानां
प्रकृत्या क्लिष्टकर्मणाम् । तद्वदत्रापि भाव्यताम् ॥ ७ ॥
और देखा भी गया है, सूर्योदय होने पर भी स्वभाव से क्लिष्ट कर्म वाले उलूकों को अन्धकार ही रहता है, उसी प्रकार अभव्य जीवों के विषय में भी समझना चाहिए, अर्थात् अभव्य जीव- देशना रूपी आलोक में भी सद्ज्ञान से वञ्चित रहते हैं ।। ७ ।।
इयं च नियमाज्ज्ञेया तथानन्दाय देहिनाम् । तदात्वे वर्तमानेऽपि भव्यानां शुद्धचेतसाम् ॥ ८ ॥
उस काल अर्थात् तीर्थङ्कर के समय में तथा वर्तमान काल में भी शुद्ध चित्त वाले भव्य जीवों को यह देशना अवश्य ही आनन्द देने वाली है ॥ ८ ॥
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