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________________ सत्रहवें और अट्ठारहवें 'मांसभक्षणदूषण' शीर्षक अष्टकों में मनुस्मृति में प्राप्त 'न मांसभक्षणे दोषः' का खण्डन किया गया है। मांसाहार के समर्थक यह तर्क देते हैं कि जिस प्रकार गाय के शरीर के अवयव दूध तथा एकेन्द्रिय चेतन जीव धान के अवयव भात का आहार किया जाता है, उसी प्रकार प्राणी का अवयव होने से मांस भी भक्ष्य है। हरिभद्र उक्त तर्क का खण्डन करते हुए कहते हैं कि भक्षणीय और अभक्षणीय की व्यवस्था का हेतु शास्त्र और लोक-व्यवहार है। इस प्रकार मांस के भक्ष्य होने में प्राणी के अङ्ग का हेतु युक्तिसङ्गत नहीं है। मांसाहार इसलिए भी असङ्गत है कि स्वत: स्मृतियों में ही निरूपित है – इस लोक में मैं जिसका मांस-भक्षण कर रहा हूँ, वह मुझे दूसरे जन्म में भक्षण करेगा। आचार्य के मत में यह मांस-भक्षण का निषेध करने वाली स्पष्ट उद्घोषणा है । ___'मांस-भक्षण दूषित नहीं है', इस मत का खण्डन करने के पश्चात् उन्नीसवें 'मद्यपानदूषणाष्टकम्' में 'मद्यपान दोष नहीं है' इस मत का निराकरण करते हुए आचार्य का कथन है कि मद्यपान घातक है और बहदोषों वाला है। मद्यपान के दोषों के विषय में अधिक कहना भी निष्प्रयोजन है क्योंकि इसके दुर्गुण और घातक परिणाम प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। आचार्य ने मद्यपान के दुष्परिणामों को, हिन्दू पुराणों में प्राप्त ऋषि दृष्टान्त के माध्यम से बताया है। बीसवें 'मैथुनदूषणाष्टकम्' में 'मैथुन में दोष नहीं है' का निराकरण किया गया है। आचार्य का तर्क है कि मैथुन सराग होता है और राग से उत्पन्न कोई भी क्रिया दोषरहित नहीं हो सकती है। स्मृति में वर्णित मैथुन के लिए विशिष्ट उद्देश्य और विशिष्ट अवसर भी इसे दुर्लभ क्रिया बताते हैं। इसकी भयावहता बताने के लिए हरिभद्र जैनागमों में वर्णित इस दृष्टान्त को भी उद्धृत करते हैं, जिसके अनुसार - जिस प्रकार नलिका में तप्त शलाका प्रविष्ट कराने से असंख्य जीवों की हत्या होती है उसी प्रकार मैथुन से भी असंख्य जीवों की हत्या होने से मैथुन दुर्गुणों का हेतु है। इक्कीसवें 'सूक्ष्मबुद्ध्याश्रयणाष्टकम्' में हरिभद्र उचित-अनुचित का सदा सूक्ष्म बुद्धि से परीक्षण कर धर्माचरण करने का उपदेश देते हैं, अन्यथा अविचारित धर्मबुद्धि से ही धर्म का विघात होता है। उदाहरणस्वरूप कोई श्रमण रुग्ण को औषधि प्रदान करने की प्रतिज्ञा ग्रहण कर, रोगी के न मिलने से प्रतिज्ञा खण्डित होने पर शोक प्राप्त करता है, जबकि वास्तव में रुग्णता का अभाव आदर्श स्थिति है। निष्कर्ष यह कि सम्यग विचार के अभाव में परोपकार की बुद्धि भी अहितकारिणी हो सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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