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________________ २७ तीर्थकृद्दाननिष्फलतापरिहाराष्टकम् कश्चिदाहास्य दानेन क इवार्थः प्रसिध्यति मोक्षगामी ध्रुवं ह्येष यतस्तेनैव जन्मना ॥ १ ॥ कुछ कहते हैं कि इस दान से उनका कौन सा अर्थ ( प्रयोजन ) सिद्ध होता है क्योंकि निश्चित रूप से वे इसी जन्म में मोक्षगामी हैं ।। १ ।। उच्यते कल्प एवास्य तीर्थकृन्नामकर्मणः । उदयात्सर्वसत्त्वानां हित एव प्रवर्तते ॥ २ ॥ ( आचार्य हरिभद्र का प्रत्युत्तर ) कहा जाता है कि तीर्थङ्कर-नामकर्म के उदय से वे समस्त प्राणियों के कल्याण की ही प्रवृत्ति करते हैं । २ ।। धर्माङ्गख्यापनार्थ च दानस्यापि महीमतिः । अवस्थौचित्ययोगेन सर्वस्यैवानुकम्पया ॥ ३ ॥ ( दाता एवं याचक दोनों के सम्बन्ध में ) उचित परिस्थितियों के योग से ( साधु एवं गृहस्थ ) सभी की अनुकम्पा हेतु धर्म के अङ्ग के रूप में दान की प्रसिद्धि के लिये महामति भगवान् ने दान दिया ॥ ३ ॥ शुभाशयकरं ह्येतदाग्रहच्छेदकारि च । सदभ्युदयसाराङ्गमनुकम्पाप्रसूति च ॥ ४ ॥ अनुकम्पाजनित यह दान प्रशस्त चित्त का जनक, ममत्व का नाश करनेवाला, शुभ पुण्य के अभ्युदय में उत्तम अर्थात् प्रधान कारण है ।। ४ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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