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अष्टकप्रकरणम्
युक्तिपूर्वक उनका यहाँ समाधान किया जा रहा है ॥ ४ ॥
महादानं हि संख्यावदर्थ्यभावाज्जगद्गुरोः । सिद्धं वरवरिकातस्तस्याः सूत्रे विधानतः ॥ ५ ॥
परिमित होकर भी जगद्गुरु तीर्थङ्कर का दान महादान सिद्ध है, क्योंकि कोई अर्थी ( याचक ) शेष न रहने से और 'वरवरिका' अर्थात् माँगो जो माँगना है, इस प्रकार शास्त्र में विधान होने से उन जगद्गुरु का दान महादान है ॥ ५ ॥
तया सह कथं संख्या युज्यते व्यभिचारतः । तस्माद्यथोदितार्थं तु संख्याग्रहणमिष्यताम् ॥ ६ ॥
उस वरवरिका अर्थात् इच्छित दान के साथ संख्या का विसंवाद होने से संख्या की सङ्गति नहीं बैठती है तो यथाकथित आशय वाले अर्थी ( याचक ) के अभावरूप अर्थ में संख्या का ग्रहण समझें ॥ ६ ॥
महानुभावताप्येषा तद्भावे न यदर्थिनः । विशिष्टसुखयुक्तत्वात्सन्ति प्रायेण देहिनः ॥ ७ ॥ धर्मोद्यताश्च तद्योगात्ते तदा तत्त्वदर्शिनः ।। महन्महत्त्वमस्यैवमयमेव जगद्गुरुः ॥ ८ ॥
उनकी महानुभावता अर्थात् उदारता भी इसी में है कि उनके होने पर कोई याचक नहीं रहता है क्योंकि प्रायः सभी प्राणी विशिष्ट सुख वाले होते हैं, धर्म में तत्पर होते हैं और उनके सहयोग से सत्यद्रष्टा बनते हैं। यही उनकी महती महत्ता है, उनका जगद्गुरुत्व है ॥ ७-८ ॥
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