SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ पुण्यानुबन्धिपुण्यादिविवरणाष्टकम् गेहाद्गेहान्तरं कश्चिच्छोभनादधिकं नरः । याति यद्वत्सुधर्मेण तद्वदेव भवाद्भवम् ॥ १ ॥ जिस प्रकार कोई पुरुष एक रमणीय घर में से दूसरे अधिक रमणीय ( रमणीयतर ) घर में जाता है, उसी प्रकार पुरुष शुभ आचरण के द्वारा एक शुभ भव से दूसरे शुभतर भव में जाता है ॥ १ ॥ गेहाद्गेहान्तरं याति यद्वदसद्धर्मात्तद्वदेव भवाद्भवम् ॥ २ ॥ जिस प्रकार कोई पुरुष एक रमणीय घर में से दूसरे अशोभन घर में जाता है, उसी प्रकार व्यक्ति अशुभ आचरण द्वारा एक शुभ भव से दूसरे अशुभ भव में जाता है ॥ २ ॥ गेहाद्गेहान्तरं कश्चिदशुभादधिकं नरः । याति यद्वन्महापापात्ववदेव भवाद्भवम् ॥ ३ ॥ जिस प्रकार कोई व्यक्ति अशुभ घर में से अशुभतर घर में जाता है, उसी प्रकार महापाप से कोई व्यक्ति अशुभ भव से अशुभतर भव में जाता है ॥ ३ ॥ कश्चिच्छोभनादितरन्नरः । गेहादगेहान्तरं कश्चिदशुभादितरन्नरः । याति यद्वत्सुधर्मेण तद्वदेव भवाद्भवम् ॥ ४ ॥ जिस प्रकार कोई पुरुष अशोभन घर से अन्य ( अर्थात् ) रमणीय घर में जाता है, उसी प्रकार सद्धर्म द्वारा मनुष्य अशुभ भव में से शुभ भव में जाता है ॥ ४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy