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________________ [ x ] अष्टम 'प्रत्याख्यानाष्टकम्' में प्रत्याख्यान के द्रव्य और भाव दो प्रकार वर्णित हैं । द्रव्यप्रत्याख्यान का उद्देश्य ऐहिक कामना है जबकि भावप्रत्याख्यान में ऐहिक कामना सर्वथा निषिद्ध है। सांसारिक अपेक्षाएँ भाव प्रत्याख्यान के पालन में बाधा रूप हैं। अभव्यों द्वारा लब्धि-आदि की कामना से किया गया प्रत्याख्यान, भाव प्रत्याख्यान नहीं है। सम्यग्अनुष्ठान के बिना ग्रहण किया गया प्रत्याख्यान विपरीत परिणाम वाला हो सकता है। जिन-धर्म में भक्ति के अभाव, विवेक के अभाव और संवेग की विकलता से प्रत्याख्यान अशुभ हो जाता है। नवम 'ज्ञानाष्टकम्' में त्रिविध ज्ञान का प्रतिपादन है – विषयप्रतिभास, आत्मपरिणतिमत तथा तत्त्वसंवेदन रूप। विष, कण्टक आदि के विषय में शिशु आदि के मात्र स्थूल ज्ञान के सदृश ज्ञान विषय-प्रतिभास नामक ज्ञान होता है, यह महान अपाय का हेतु है । अध:पतन की प्रवृत्तियों के वशीभूत व्यक्ति का ज्ञान आत्मपरिणतिमत ज्ञान है, यह अनर्थ की प्राप्ति कराने वाला है। इस ज्ञान से युक्त पुरुष का आचरण सत् - शुभ होता है। यह ज्ञान शुभ बन्ध वाला तथा वैराग्य की प्रवृत्ति का कारण है। तृतीय, तत्त्व-संवेदन रूप ज्ञान स्वस्थ आचरण वाले प्रशान्त चित्त धारक को होता है। तत्त्वसंवेदन ज्ञान हेय-उपादेय का निश्चयात्मक बोध कराने वाला तथा मोक्ष का हेतु है। दशम 'वैराग्याष्टकम्' त्रिविध वैराग्य - आर्तध्यान, मोहगर्भ तथा सज्ज्ञान से युक्त – का निरूपण करता है । इष्ट के वियोग और अनिष्ट के संयोग से उत्पन्न होने वाला ध्यान आर्तध्यान रूप वैराग्य है। इसकी परिणति आत्महत्या आदि में होती है। द्वितीय, मिथ्यात्वी दर्शनों से प्रभावित होकर संसार से विरक्ति मोहगर्भ वैराग्य है। तृतीय, संसार-चक्र ही आत्मा के दारुण दु:ख का कारण है; इस अनुभूति से उत्पन्न सम्यग्ज्ञान से युक्त संज्ञान वैराग्य है। इस वैराग्य में आत्मादि तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान होता है। ___ एकादश 'तपोऽष्टकम्' में हरिभद्र विपक्षियों के इस तर्क का खण्डन करते हैं कि तप बैल आदि के दु:खों की भाँति दुःखात्मक है। आचार्य का अभिमत है कि यदि तप को दुःख से समीकृत किया जाय तो सभी दु:खी प्राणी तपस्वी हो जायेंगे। विपक्षियों की मान्यता का निहितार्थ यह होगा कि सभी नारक महान् तपस्वी और शम रूपी सुख की प्रधानता से युक्त योगी, अतपस्वी माने जायेंगे । हरिभद्र विपक्षियों के इस तर्क का भी खण्डन करते हैं कि तप को न तो युक्तिपूर्वक सिद्ध किया जा सकता है और न ही आगमों में तप का प्रतिपादन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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