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सूक्ष्मबुद्ध्याश्रयणाष्टकम् सूक्ष्मबुद्ध्या सदा ज्ञेयो धर्मो धर्मार्थिभिनरैः । अन्यथा धर्मबुद्ध्यैव तद्विघातः प्रसज्यते ॥ १ ॥ गृहीत्वा ग्लानभैषज्यप्रदानाभिग्रहं यथा । तदप्राप्तौ तदन्तेऽस्य शोकं समुपगच्छतः ॥ २ ॥
धर्मश्रद्धालुओं को सदा सूक्ष्मबुद्धि से धर्म को जानना चाहिए, नहीं तो धर्मबुद्धि से धर्म का भी विघात होता है। जिस प्रकार ग्लान ( बीमार ) को औषधि प्रदान करने की प्रतिज्ञा ग्रहण कर ग्लान के न मिलने पर अन्त में वह व्यक्ति शोक को प्राप्त होता है, क्योंकि अविचारित धर्मबुद्धि भी धर्म के विघात का कारण बन जाती है ॥ १-२ ॥
गृहीतोऽभिग्रहः श्रेष्ठो ग्लानो जातो न च क्वचित् । अहो मेऽधन्यता कष्टं न सिद्धमभिवाञ्छितम् ॥३॥
यद्यपि ग्रहण की गई प्रतिज्ञा श्रेष्ठ है, लेकिन किसी के रुग्ण न होने पर प्रतिज्ञाकर्ता विचार करता है कि मेरी अधन्यता कष्टप्रद है, मेरी इष्ट-सिद्धि नहीं हो सकी ।। ३ ।।
एवं ह्येतत्समादानं ग्लानभावाभिसन्धिमत् । साधूनां तत्त्वतो यत्तद् दुष्टं ज्ञेयं महात्मभिः ॥ ४ ॥
इस प्रकार की प्रतिज्ञा-ग्रहण के परिप्रेक्ष्य में किसी के ग्लान होने का जो अभिप्राय है, वह परमार्थ की दृष्टि से सत्पुरुषों के लिए दोषरूप ही है, ऐसा महापुरुषों द्वारा जानना चाहिए। ( तात्पर्य यह है कि किसी बीमार को औषध देने की प्रतिज्ञा पूरी न होने पर व्यक्ति के द्वारा यह विचार करना
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