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अष्टकप्रकरणम्
स्नायादेवेति न तु यत्ततो हीनो गृहाश्रमः । तत्र चैतदतो न्यायाप्रशंसाऽस्य न युज्यते ॥ ४ ॥
स्नान करना ही चाहिए ऐसा भी नहीं है, क्योंकि ब्रह्मचर्याश्रम से गृहस्थाश्रम हीन है और उसमें ही मैथुन सम्भव है, इस न्याय से मैथुन की प्रशंसा सङ्गत नहीं है ॥ ४ ॥
अदोषकीर्तनादेव प्रशंसा चेत् कथं भवेत् । अर्थापत्या सदोषस्य दोषाभावप्रकीर्तनात् ॥ ५ ॥
'मैथुन में दोष नहीं है', इस प्रकार कथन करने मात्र से ही मैथुन की प्रशंसा कैसे होगी ? क्योंकि अर्थापत्ति प्रमाण से अदोष रूप में कथन करने से ही उसकी सदोषता स्वतः ही सिद्ध हो जाती है ॥ ५ ॥
तत्र
प्रवृत्तिहेतुत्वात्त्याज्यबुद्धेरसम्भवात् ।
विध्युक्तेरिष्टसंसिद्धेरुक्तिरेषा न
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भद्रिका ॥ ६ ॥
'मैथुन में दोष नहीं है', यह उक्ति कल्याणकर नहीं है, क्योंकि यह कथन मैथुन त्याज्य है इस बुद्धि को उत्पन्न नहीं होने देती और मैथुन प्रवृत्ति में हेतुभूत बनती है तथा मैथुन सेवन की आज्ञारूप होने से यह मैथुन सेवन की सिद्धिरूप है ॥ ६ ॥
प्राणिनां बाधकं चैतच्छास्त्रे गीतं महर्षिभिः । नलिकातप्तकणकप्रवेशज्ञाततस्तथा
॥ ७ ॥
महर्षियों ( महावीर आदि ) ने शास्त्र ( व्याख्याप्रज्ञप्ति ) में कहा है कि जिस प्रकार तप्त शलाका का नलिका में प्रवेश कराने से नलिका स्थित तिल आदि के जीवों का घात होता है, उसी प्रकार मैथुन-क्रिया प्राणियों के घात का दृष्टान्त है ॥ ७ ॥
मूलं
चैतदधर्मस्य तस्माद्विषान्नवत्त्याज्यमिदं
यह मैथुन अधर्म का मूल तथा वाला है। अतः मृत्यु को न चाहने वाले की तरह त्याग देना चाहिए ॥ ८ ॥
भवभावप्रवर्धनम् । मृत्युमनिच्छता ॥ ८ ॥ संसार अर्थात् जन्म-मरण को बढ़ाने मुमुक्षु को उसे विष मिश्रित अन्न
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