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________________ २० मैथुनदूषणाष्टकम् रागादेव नियोगेन मैथुनं जायते यतः । ततः कथं न दोषोऽत्र येन शास्त्रे निषिध्यते ॥ १ ॥ 'प्रतिपक्षीमत कि 'मैथुन में दोष नहीं है', का निराकरण करते हुए हरिभद्र कहते हैं - क्योंकि राग से ही अपरिहार्य रूप से मैथुन उत्पन्न होता है, इस कारण इस मैथुन में दोष कैसे नहीं है ? अर्थात् अवश्य दोष है। इसी दोष के कारण शास्त्र में मैथुन का निषेध किया गया है ॥ १ ॥ धर्मार्थ पुत्रकामस्य स्वदारेष्वधिकारिणः । ऋतुकाले विधानेन यत्स्याद्दोषो न तत्र चेत् ॥ २ ॥ प्रतिपक्षी द्वारा मैथुन को दोषरहित सिद्ध करने के लिये यह तर्क दिया जाता है कि धर्म के लिए पुत्र की कामना करने वाले गृहस्थ द्वारा अपनी पत्नी के साथ ऋतुकाल में विधिसम्मत मैथुन में दोष नहीं है किन्तु यदि यह माना जाय तो भी इससे मैथुन का दोष-रहितत्व अबाधित रूप से सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि इससे मैथुन सर्वथा निर्दोष है यह फलित नहीं होता है ॥ २ ॥ नापवादिककल्पत्वानैकान्तेनेत्यसङ्गतम् । वेदं ह्यधीत्य स्नायाद्यदधीत्यैवेति शासितम् ॥ ३ ॥ पत्नी से मैथुन कामी को निश्चितरूप से स्नान करके वेद पढ़ना चाहिए। यहाँ पढ़कर ही, बिना पढ़े नहीं, यह उपदिष्ट है अर्थात् वेदाध्ययन अनिवार्य है, मैथुन नहीं, अतः मैथुन आपवादिक आचाररूप है, इस कारण इसे निर्दोष कहना सङ्गत नहीं है ॥ ३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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