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अष्टकप्रकरणम्
विनयेन समाराध्य वरदाभिमुखं स्थितम् । जगुर्मद्यं तथा हिंसां सेवस्वाब्रह्म वेच्छया ॥ ५ ॥ स एवं गदितस्ताभिर्द्वयोर्नरकहेतुताम् । आलोच्य मद्यरूपं च शुद्धकारणपूर्वकम् ॥ ६ ॥ मद्यं प्रपद्य तद्भोगान्नष्टधर्मस्थितिर्मदात् । विदंशार्थमजं हत्वा सर्वमेव चकार सः ॥ ७ ॥ ततश्च भ्रष्टसामर्थ्यः स मृत्वा दुर्गतिं गतः ।। इत्यं दोषाकरो मद्यं विज्ञेयं धर्मचारिभिः ॥ ८ ॥
अगले पाँच श्लोकों में महातपस्वी की दृष्टान्त कथा वर्णित है - किसी ऋषि ने सहस्रों वर्षों तक घोर तप किया, उसके तप से भयभीत होकर इन्द्र ने ऋषि के विचलन के लिए देवाङ्गनाओं ( अप्सराओं ) को भेजा। उस ऋषि के समीप आकर उन देवाङ्गनाओं ने वरदान देने हेतु तत्पर होकर उन ऋषि से कहा - 'मद्य, मांस या मैथुन में से किसी एक का यथेच्छ सेवन करें।' उनके द्वारा इस प्रकार कहा जाने पर ऋषि ने हिंसा और मैथुन दोनों को नरक का कारण समझकर तथा मद्य की शुद्धता का विचार कर मद्यपान किया और मद्यपान के उपभोग से उत्पन्न मद के शमन के लिए बकरे को मारकर मांस का और फिर मैथुन का सेवन किया। इस प्रकार नष्टधर्मी उस ऋषि ने सारे अनर्थ कर डाले और तपभ्रष्ट हो मरकर दुर्गति में गया। इस प्रकार धर्माचरण करने वालों को समझना चाहिए कि मद्य दोषों की खान है ।। ४-८ ॥
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