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मद्यपानदूषणाष्टकम् मद्यं पुनः प्रमादाङ्ग तथा सच्चित्तनाशनम् । सन्धानदोषवत्तत्र न दोष इति साहसम् ॥ १ ॥
( मांसभक्षण में दोष नहीं है, इसका निराकरण करने के पश्चात् 'मद्यपान में दोष नहीं है' इसका निराकरण करते हुए आचार्य हरिभद्र कहते हैं - ) पुन: मद्यपान भी प्रमाद का कारण है तथा शुभ चित्त का नाशक है और सन्धान अर्थात् बहुत से घटकों का मिश्रण कर उन्हें सड़ाने से निर्मित होने के कारण बहुदोष वाला है, अत: मद्यपान में दोष नहीं है, यह कहना धृष्टता मात्र है ॥ १ ॥
किं वेह बहुनोक्तेन प्रत्यक्षेणैव दृश्यते । दोषोऽस्य वर्तमानेऽपि तथा भण्डनलक्षणः ॥ २ ॥
इस मद्यपान के दूषण के विषय में अधिक कहने से क्या प्रयोजन? वर्तमान में भी कलह आदि का कारण होने से इसके प्रत्यक्ष में ही अनेक दोष देखे जाते हैं ॥ २ ॥
श्रूयते च ऋषिर्मद्यात् प्राप्तज्योतिर्महातपाः । स्वर्गाङ्गनाभिराक्षिप्तो मूर्खवनिधनं गतः ॥ ३ ॥
सुना जाता है कि कोई एक महातपस्वी, ज्ञानरूपी प्रकाश से युक्त ऋषि स्वर्ग-सुन्दरियों अर्थात् अप्सराओं से आकृष्ट हो मद्यपान करके मूर्ख की भाँति मृत्यु को प्राप्त हुआ ।। ३ ।।
कश्चिदृषिस्तपस्तेपे भीतः इन्द्रः सुरस्त्रियः । क्षोभाय प्रेषयामास तस्यागत्य चतास्तकम् ॥ ४ ॥
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