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________________ 74 अष्टकप्रकरणम् अन्य निम्नोद्धृत उक्ति ( प्रोक्षितं ) के अनुसार मांस-भक्षण सङ्गत है ॥ ४ ।। प्रोक्षितं भक्षयेन्मांसं ब्राह्मणानां च काम्यया । यथाविधि नियुक्तस्तु प्राणानामेव वाऽत्यये ॥ ५ ॥ प्रोक्षित मांस अर्थात् वैदिक मन्त्र से अभिसिञ्चित मांस और ब्राह्मणों द्वारा वाञ्छित मांस अर्थात् ब्राह्मण द्वारा भुक्तावशेष और प्राणों की रक्षा के लिए शास्त्रविधि के अनुसार मांस ग्रहण करना चाहिए ॥ ५ ॥ अत्रैवासावदोषश्चेनिवृत्ति स्य सज्यते । अन्यदाऽभक्षणादत्राभक्षणे दोषकीर्तनात् ॥ ६ ॥ यहाँ यदि उस श्लोक में कथित 'न मांसभक्षणे दोषः' - इस उक्ति का आशय यह है कि शास्त्रविहित मांसभक्षण में दोष नहीं है तो फिर उसी श्लोक में कथित 'निवृत्तिस्तु महाफला' अर्थात् मांसभक्षण से निवृत्ति कभी सम्भव ही नहीं होगी। कारण कि शास्त्रविहित प्रसङ्गों के अतिरिक्त मांस का भक्षण नहीं किया जाता है तथा शास्त्रविहित प्रसङ्गों में मांस न खाने में दोष कहा जाता है - ॥ ६ ॥ यथाविधि नियुक्तस्तु यो मांसं नात्ति वै द्विजः । स प्रेत्य पशुतां याति सम्भवानेकविंशतिम् ॥ ७ ॥ जो ब्राह्मण 'शास्त्रविहित मांसभक्षण' नहीं करता है तो वह परलोक में इक्कीस भवों तक पशुता को प्राप्त होता है ॥ ७ ॥ पारिवाज्यं निवृत्तिश्चेद्यस्तदप्रतिपत्तितः । फलाभावः स एवाऽस्य दोषो निर्दोषतैव न ॥ ८ ॥ ( आचार्य का कथन है कि ) परिव्राजकता स्वयं ही मांसभक्षण के त्यागरूप है तो परिव्राजकता ( में मांस-निवृत्ति ) के अभाव में फलाभाव होगा और विहित मांसभक्षण का दोष होगा। अत: मांसभक्षण की निर्दोषता सिद्ध नहीं होती ॥ ८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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