SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ मांसभक्षणदूषणाष्टकम् अन्योऽविमृश्य शब्दार्थ न्याय्यं स्वयमुदीरितम् । पूर्वापरविरुद्धार्थमेवमाहात्र वस्तुनि ॥ १ ॥ दूसरे ( द्विजादि ) स्वयं प्रतिपादित मांस शब्द के न्यायसङ्गत अर्थ का विचार न कर इस ( मांसभक्षण ) के विषय में इस प्रकार परस्पर विरुद्ध कथन करते हैं - ॥ १ ॥ न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥ २ ॥ मांसभक्षण में दोष नहीं है, मद्यसेवन और मैथुन में भी दोष नहीं है क्योंकि यह प्राणियों की ( स्वाभाविक ) प्रवृत्ति है, किन्तु इनसे निवृत्ति ( त्याग ) महाफलदायक है ॥ २ ॥ मां स भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाद्म्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ३ ॥ जिसका मांस मैं इस लोक में भक्षण कर रहा हूँ, वह भी मुझे दूसरे जन्म में भक्षण करेगा, यह मांस शब्द का मांसत्व है, ऐसा विद्वान् कहते इत्थं जन्मैव दोषोत्र न शास्त्राबाह्यभक्षणम् । प्रतीत्यैष निषेधश्च न्याय्यो वाक्यान्तराद्गतेः ॥ ४ ॥ ( आचार्य का कथन ) इस प्रकार ( मांस भक्षयिता के अनुसार ) जन्म ( भक्षक का अगले जन्म में भक्ष्यरूप में ) ही दोष है तो “न मांस भक्षणे दोषः" क्यों कहा गया ? ( विपक्षी का कथन ) शास्त्रसम्मत के अतिरिक्त मांस-भक्षण के सम्बन्ध में यह ( मांसभक्षयिता ) निषेध है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy