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अष्टकप्रकरणम्
शास्त्र में मांस के अभक्ष्य रूप में प्रसिद्ध होने से इसे अभक्ष्य स्वीकार किया गया है ॥ ४ ॥
भिक्षुमांसनिषेधोऽपि न चैवं युज्यते क्वचित् । अस्थ्याद्यपि च भक्ष्यं स्यात्प्राण्यङ्गत्वाविशेषतः ॥ ५ ॥
यदि प्राणी का अङ्ग होना ही भक्ष्य होने का हेतु माना जाय तो भिक्षु के लिए भी मांस-निषेध युक्तिसङ्गत नहीं होगा और प्राणी के अस्थि आदि भी समान रूप से भक्ष्य होंगे ।। ५ ।।
एतावन्मात्रसाम्येन प्रवृत्तिर्यदि चेष्यते । जायायां स्वजनन्यां च स्त्रीत्वात्तुल्यैव साऽस्तुते ॥ ६ ॥
यदि प्राणी का अङ्ग मात्र होने के सादृश्य से मांस-भक्षण की प्रवृत्ति अभिमत है तो स्त्रीत्व का सादृश्य होने से पत्नी और अपनी माता में भी वही एक सी प्रवृत्ति होनी चाहिए ॥ ६ ।।
तस्माच्छास्त्रं च लोकं च समाश्रित्यवदेद् बुधः। सर्वत्रैवं बुधत्वं स्यादन्यथोन्मत्ततुल्यता ॥ ७ ॥
इस कारण बुद्धिमान व्यक्ति शास्त्र और लोक-व्यवहार का आश्रय लेकर भक्ष्याभक्ष्य के सभी प्रसङ्गों में कथन करे, उसकी बुद्धिमत्ता इसी में है; अन्यथा उसका व्यवहार उन्मत्त अर्थात् विवेकशून्य व्यक्ति के तुल्य होगा |॥ ७ ॥
शास्त्रे चाप्तेन वोऽप्येतन्निषिद्धं यत्नतो ननु । लङ्कावतारसूत्रादौ ततोऽनेन न किञ्चन ॥ ८ ॥
लङ्कावतारसूत्र आदि बौद्धशास्त्रों में भी आपके आप्तपुरुष बुद्धदेव ने मांसभक्षण का निषेध किया है, अत: मांसभक्षण के लिए ऐसे सादृश्यमूलक तर्कों का कोई प्रयोजन नहीं है ।। ८ ।।
* ज्ञातव्य है कि जैन दर्शन में वनस्पति को भी सजीव माना गया है और इसी आधार
पर विपक्ष की ओर से यह तर्क दिया गया है कि यदि अन्न और मांस दोनों ही सजीव प्राणियों के अवयव हैं तो दोनों ही भक्ष्य ( खाद्य ) माने जाने चाहिये। आचार्य
हरिभद्र ने अग्रिम श्लोकों में इसी कुतर्क का उत्तर दिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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