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अष्टकप्रकरणम्
होगा, क्योंकि सन्तान के काल्पनिक अर्थात् अवास्तविक या क्षणजीवी होने से उसकी उत्पत्ति सम्भव नहीं जिसके कारण इसका विनाश घटित होता है ॥ ४ ॥
न च
क्षणविशेषस्य
तेनैव व्यभिचारतः ।
तथा च सोऽप्युपादान भावेन जनको मतः ॥ ५ ॥
( क्षण- विशेष अर्थात् क्षणिक सत्ता का जनक ही उसका हिंसक है, इस युक्ति का खण्डन करते हुए आचार्य कहते हैं ) क्षण- विशेष अर्थात् अर्थक्रियाकारी पदार्थ का जनक उसका हिंसक नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि इससे व्यभिचार अर्थात् विसंवाद उत्पन्न होगा, क्योंकि नष्ट होता पदार्थ स्वयं उपादानरूप से उत्तरवर्ती क्षण ( सन्तान ) का जनक है, ऐसा बौद्ध मानते हैं ।॥ ५ ॥
तस्यापि हिंसकत्वेन न कश्चित्स्यादहिंसकः । जनकत्वाविशेषेण नैवं तद्विरतिः क्वचित् ॥ ६ ॥
यदि जनक रूप होने से क्षण- विशेष को हिंसक माना जाय तो कोई भी अहिंसक नहीं होगा और इस प्रकार हिंसा का कभी भी अभाव सम्भव नहीं होगा, अर्थात् अहिंसा का अस्तित्व नहीं होगा ।। ६ ।।
उपन्यासश्च शास्त्रेऽस्याः कृतो यत्नेन चिन्त्यताम् । विषयोऽस्य यमासाद्य हन्तैष सफलो भवेत् ॥ ७ ॥
इस अहिंसा का बौद्ध शास्त्रों में उल्लेख किया हुआ है इसलिए बौद्धों को गम्भीरता से प्रयत्नपूर्वक विचार करना चाहिए जिससे अहिंसा के विषय को प्राप्त कर उनका वह उल्लेख सफल सार्थक हो सके ॥ ७ ॥
अभावेऽस्या न युज्यन्ते सत्यादीन्यपि तत्त्वतः । अस्याः संरक्षणार्थं तु यदेतानि मुनिर्जगौ ॥ ८ "I अहिंसा के अभाव में सत्यादि भी वास्तविक रूप से घटित नहीं होंगे, क्योंकि ये सब अहिंसा के संरक्षण के लिए हैं, ऐसा जिन ने कहा है ॥ ८ ॥
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