________________
58
अष्टकप्रकरणम्
शरीरेणापि सम्बन्धो नात एवास्य सङ्गतः । तथा सर्वगतत्वाच्च संसारश्चाप्यकल्पितः ॥ ५ ॥
आत्मा को एकान्तनित्य मानने से उसका शरीर के साथ सम्बन्ध मानना भी युक्तियुक्त नहीं है। पुन: आत्मा के सर्वव्यापक होने से उसका भवभ्रमण भी सम्भव नहीं है ॥ ५ ॥
ततश्चोर्ध्वगतिर्धर्माद् अधोगतिरधर्मतः । ज्ञानान्मोक्षश्च वचनं सर्वमेवौपचारिकम् ॥ ६ ॥
इस प्रकार संसाराभाव होने पर आत्मा की ऊर्ध्वगति धर्म से होती है, अधोगति अधर्म से होती है और ज्ञान से मुक्ति होती है, ऐसा शास्त्रवचन केवल औपचारिक ही सिद्ध होगा ।। ६ ॥
भोगाधिष्ठानविषयेऽप्यस्मिन् दोषोऽयमेव तु । तभेदादेव भोगोऽपि निष्क्रियस्य कुतो भवेत् ॥ ७ ॥
आत्मा को भोगाधिष्ठान अर्थात् भोक्ता मानने पर भी उनके दर्शन में दोष आता है और भोग भी क्रिया का ही एक भेद होने से उस निष्क्रिय आत्मा में कैसे सम्भव होगा अर्थात् कदापि सम्भव नहीं होगा ।। ७ ॥
इष्यते चेत् क्रियाप्यस्य सर्वमेवोपपद्यते । मुख्यवृत्त्याऽनघं किन्तु परसिद्धान्तसंश्रयः ॥ ८ ॥
यदि इस नित्य आत्मा में क्रिया अर्थात् परिणमन भी माना जाय तो इसमें अहिंसा-हिंसा आदि सब पारमार्थिक दृष्टि से घटित हो सकते हैं. किन्तु ऐसा स्वीकार करने से परमत अर्थात् जैनमत का आश्रय लेना पड़ेगा ॥ ८ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org