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अष्टकप्रकरणम्
ने कहा है - प्रमाण और उनसे निष्पन्न होता व्यवहार दोनों प्रसिद्ध हैं। प्रमाण
-
का लक्षण कहने में कोई प्रयोजन नहीं है ।। ३-५ ।।
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प्रमाणेन विनिश्चित्य तदुच्यते न वा अलक्षितात्कथं युक्ता न्यायतोऽस्य
ननु । विनिश्चितिः ॥ ६ ॥
प्रमाण से निश्चित करके उस प्रमाण लक्षण को कहा जा सकता है अथवा नहीं, क्योंकि जिसका लक्षण ही नहीं हुआ है ऐसे अनिश्चित प्रमाण से अपने ही लक्षण का निश्चय तार्किक दृष्टि से किस प्रकार युक्तिसङ्गत होगा ? ।। ६ ।।
सत्यां चास्यां तदुक्त्यां किं तद्वद्विषयनिश्चितेः ।
तत
ऐसी स्थिति में अनिर्णीत लक्षण वाले प्रमाण से प्रमाण के लक्षण का निश्चय करने से क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है ? इस प्रकार प्रमाण का लक्षण निश्चित करना मूर्खता होगी ॥ ७ ॥
एवाविनिश्चित्य तस्योक्तिर्ध्यान्ध्यमेव हि ॥ ७ ॥
तस्माद्यथोदितं वस्तु विचार्य रागवर्जितैः ।
धर्मार्थिभिः प्रयत्नेन तत इष्टार्थसिद्धितः ।। ८ ।।
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अतः जिन कथित वस्तु के यथार्थ स्वरूप पर रागरहित धार्मिक पुरुषों को प्रयत्नपूर्वक विचार करना चाहिए, क्योंकि इसी से इष्ट अर्थ की सिद्धि होती है ॥ ८ ॥
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