________________
प्रस्तावना
विधिनियमभंगवृत्तिव्यतिरिक्तत्वादनर्थकत्रचोवत् ।
जैनादन्यच्छासनमनृतं भवतीति वैधर्म्यम् ॥
नयचक्र में विधि, नियम, आदि बारह प्रकारों से नयों का उपयोग कर वस्तुतत्त्व की चर्चा की गई है । नयों का चत्ररूप में वर्णन करने का तात्पर्य यह है कि कोई भी नय अपने आप में सर्वश्रेष्ठ नही होता । जैसे चक्र में सभी बिन्दु समान महत्त्व के होते हैं वैसे ही वस्तुतत्त्र के वर्णन में सभी नयों का समान महत्त्व होता है । इस ग्रन्थ का विस्तार १०००० श्लोकों जितना कहा गया है ।
५१
मल्लवादी ने सिद्धसेनकृत सन्मतिसूत्र की टीका लिखी थी वह भी अनुपलब्ध है । बृहद्दिष्पनिका ( क्र. ३५८ ) के अनुसार इस टीका का विस्तार ७०० श्लोकों जितना था । उन का पद्मचरित (रामायण) भी प्राप्त नही है ।
=
कथा में मल्लवादी द्वारा बुद्धानन्द के पराजय का समय वीरसंवत् ८८४ सन ३५७ दिया है । किन्तु वे सिद्धसेन के बाद हुए हैं अतः यह समय विश्वसनीय नही है । उन के समय की उत्तरमर्यादा सन ७०० है क्यों कि हरिभद्र ने अपने ग्रन्थों में उन का कई बार उल्लेख किया है तथा उन्हें वादिमुख्य कहा है ( अनेकान्तजयपताका भाग १ पृ. ५८ आदि ) । इस तरह उन का समय सिद्धसेन के बाद तथा हरिभद्र के पूर्व - छठीं या सातवीं शताब्दी - प्रतीत होता है ।
Jain Education International
[ प्रकाशन -- १ द्वादशारनयचक्र (टीका) - सं. विजयलब्धिसूरि, लब्धिसूरीश्वर ग्रन्थमाला, १९४८-५७ २ सं. मुनि चतुरविजय तथा ला. भ. गांधी- गायकवाड ओरिएन्टल सीरीज, बडौदा १९५२. ]
१६. अजितयशस् - - आचार्य मल्लवादी के बन्धु के रूप में अजितयशस् का उल्लेख ऊपर किया है । कथा के अनुसार उन्हों ने प्रमाण विषयपर कोई ग्रन्थ लिखा था | आचार्य हरिभद्र ने अनेकान्तजयपताका में (भा. २ पृ. ३३) पूर्वाचार्य के रूप में उन का उल्लेख किया है तथा
१) तथा जितयशोनामा प्रमाणग्रन्थमादधे । प्रभावकचरित - मल्लवादी प्रबन्ध श्लो. ३७
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org