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प्रस्तावना
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संशोधन आवश्यक है । दर्शनसार में दी हुई सभी तिथियां विक्रमराज के मृत्युवर्ष के अनुसार दी हैं। किन्तु उन का सामंजस्य प्रचलित विक्रमसंवत की अपेक्षा शकसंवत से अधिक बैठता है । उदाहरणार्थ - कुमारसेन का समय दर्शनसार में सं. ७५३ दिया है और कुमारसेन के गुरु विनयसेन के गुरुबंधु जिनसेन का ज्ञात समय शक सं. ७५९ (जयधवला की समाप्ति ) है । यदि कुमारसेन का समय प्रचलित विक्रमसंवत के अनुसार सं. ७५३ मानें तो यह बात संभव नही होगी- उस अवस्था में जिनसेन से १४१ वर्ष पहले कमारसेन का समय सिद्ध होगा। अतः दर्शनसारोक्त वर्षगणना शककाल की मानना आवश्यक होता है। तदनुसार पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दि का समय शक सं. ५२६ सन १०६
और पूज्यपाद का समय छठी सदी का उत्तरार्ध मानना होगा। पूज्यपाद गंगराजा दुर्विनीत के गुरु थे ऐसी मान्यता है । दुर्विनीत का समय भी छठी सदी का उत्तरार्ध ही निश्चित हुआ है । अतः पूज्यपाद का समय भी तदनुसार छठी सदी मानना चाहिए।
१४. वज्रनन्दि-पूज्यपाद के शिष्य तथा द्राविड संघ के स्थापक बज्रनन्दि का उल्लेख ऊपर किया है। दर्शनमार के उस उल्लेख में उन्हें प्रामृतवेदी तथा महासत्त्व कहा है । हरिवंशपुराण (१-३२ ) में
१) जैनेन्द्र महावृत्ति प्रस्तावना में पं. युधिष्ठिर ने देवनन्दि का समय पाचवीं सदी (मध्य) मानने के लिए यह तर्क दिया है कि देवनन्दि ने निकट भूतकाल के उदाहरण में 'अरुणत् महेन्द्रो मथुराम्' यह वाक्य दिया है तथा इस में उल्लिखित महेन्द्र गुप्त सम्राट कुमारगुप्त हैं । किन्तु यह तर्क ठीक नहीं है । उक्त उदाहरण देवनन्दि ने स्वयं दिया हुआ नही है-महावृत्तिकार अभयनन्दि का है तथा अभयनन्दि का समय नवीं सदी सुनिश्चित हैं । अतः उक्त उदाहरण में उल्लिखित महेन्द्र अभयनन्दि के समकालीन कोई राजा होने चाहिए। २) पं. शान्तिराजशास्त्री के अनुसार यह मान्यता भ्रममूलक है दुर्विनीत शब्दावतार ग्रन्थ का कर्ता था तथा पूज्यपाद को भी शब्दावतारकर्ता कहा गया है, किन्तु इतने पर से उन में गुरुशिष्यसम्बन्ध की कल्पना ठीक नही (तत्त्वार्थसूत्रभास्करनन्दिकृत वृत्तिकी प्रस्तावना)। ३) दि क्लासिकल एज पृ. २६९. ४) पूज्यपाद विषयक कथाएं बिलकुलही अविश्वसनीय हैं -एक में पाणिनि को उन का मामा बतलाया है (समाधितंत्र प्रस्तावना पृ. १०, जैन साहित्य और इतिहास पृ. ५०) वि.त प्र.४
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