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________________ ३२४ विश्वतत्त्वप्रकाशः [पृ.७२पृष्ठ ६७-ईश्वर के अवतार तथा ईश्वर में मानवीय गुणदोष होना ये दोनों कल्पनाएं जैन दर्शन के अनुसार गलत हैं । इस का विवरण पहले दिया है ( पृष्ठ ५४ का टिप्पण देखिए )। पृष्ठ ६८-बौद्धदर्शन के क्षणिकवाद का आगे विस्तार. से खण्डन किया है (परिच्छेद ८६)। पृष्ठ ६९-इस देश तथा काल में सर्वज्ञ नहीं है यह कथन जैन मान्य नही कर सकते-इस प्रदेश अर्थात् भारत में पहले सर्वज्ञ हो गये है तथा आगे भी होनेवाले है यह उन की मान्यता है । इस समय भी विदेह क्षेत्र में सर्वज्ञ वर्तमान है ऐसा भी वे मानते है। पृष्ठ ७०-प्रत्यक्ष से सर्वत्र सर्वदा सर्वज्ञ का अभाव नही जाना जा सकता यह तर्क पहले भी (पृ. २५) दिया है। अन्य प्रमाणों से भी सर्वज्ञ का अभाव शात नहीं होता यह भी पहले (पृ. २५-३०) बतलाया है। पहले स्थान में 'सर्वज्ञ का अभाव' कहा है उस को प्रस्तुत प्रसंग में 'सर्वज्ञरहित समय-प्रदेश का होना ' इस रूप में कहा है इतना ही अन्तर है। पृष्ठ ७१--चार वेदों की कई शाखाओं का उल्लेख चरणव्यूह नामक ग्रन्थ में मिलता है । पतंजलि के व्याकरण महाभाष्य में भी वेदशाखाओं की संख्या का निर्देश है, इस में सामवेद को 'हजार मार्गों का' कहा है। इस समय के समान लेखक के समय भी इनमें उपलब्ध शाखाओं की संख्या कम ही रही होगी। इसी लिए प्रस्तुत समय में 'सहस्रशाखावेदपारग' नही है ऐसा उन्हों ने कहा है। अश्वमेध यज्ञ करनेवाले भी लेखक के समय नही थे । इतिहास में गुप्त राजाओं के (पांचवी सदी) बाद अश्वमेध यज्ञ किए जाने का वर्णन नहीं मिलता। अतः लेखक के पहले कोई आठसौ वर्षों से अश्वमेध की परम्परा खण्डित ही थी यह स्पष्ट है। __पृष्ठ ७२-वेद का कोई कर्ता नही है क्यों कि ऐसे किसी कर्ता का किसी को स्मरण नाही है यह अनुमान मीमांसादर्शन के शाबरभाष्य (१।१।५), प्रभाकर की बृहती टीका (पृ. १७७), शालिकनाथ की प्रकरणपंचिका (पृ.१४०) आदि में पाया जाता है । प्रभाचन्द्र ने इस का विस्तृत परीक्षण किया है (न्यायकुमुदचन्द्र पृ. ७२१)। १) चत्वारो वेदाः सांगाः सरहस्याः बहुधा विभिन्नाः एकशतम् अध्वर्युशाखा: सहस्रवा सामवेदः एकविंशतिधा बाहवृच्यम् नवधाथर्वणो वेदः-प्रथम आन्हिक पृष्ठ३१ (डेक्कन ए. सोसाइटी का हिन्दी संस्करण)। mma Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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