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________________ ३१६ विश्वतत्त्वप्रकाशः [पृ. २७ रहेगा-तब वह बाकी सब पदार्थों को कैसे जान सकेगा? इस का उत्तर जैन दार्शनिकों ने दो प्रकार से दिया है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार जब कोई ध्यक्ति सर्वज्ञ होता है तब उसे भौतिक भोजन की जरूरत ही नही रहतीअनन्त ज्ञान के समान उसे अनन्त सुख भी प्राप्त होता है। इसी तरह सर्वज्ञ का धर्मोपदेश भी इच्छापूर्वक नही होता-वह तो पूर्वोपार्जित तीर्थकर नामकर्म का फल मात्र होता है-अतः भोजनादि से अयवा उपदेश से सर्वज्ञ के ज्ञान में कोई बाधा नही पडती । श्वेताम्बर परम्परा में सर्वज्ञ के भोजनादि क्रियाएं तो स्वीकार . की है किन्तु इन क्रियाओं के होते हुए भी सर्वज्ञ के ज्ञान में बाधा नही मानी है-वह इसलिए कि सर्वज्ञ का ज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है, मन या इन्द्रियों पर अवलम्बित नही होता अतः शारीरिक क्रियाओं से उस में कोई बाधा नही पडती। पृष्ठ २८-उपनिषदों की परम्परा में सर्वज्ञ के समर्थक वचन दो प्रकार से प्राप्त होते हैं-एक में जगत के सब क्रियाओं ( इस में ज्ञान भी सम्मिलित होता है) के आधार के रूप में ब्रह्म का वर्णन आता है, लेखक ने यहां उद्धृत किये हैं वे दोनों वाक्य इसी प्रकार के हैं। दूसरे प्रकार में परम शक्तिशाली ईश्वर में सर्वज्ञता का वर्णन किया है; स सर्वज्ञः सर्वमेवाविवेश (प्रश्न उ. ४-८), यः सर्वज्ञः सर्ववित् यस्य ज्ञानमयं तपः (मुण्डक उ. १-१०) आदि वाक्य इस प्रकार के हैं, इन में सर्वज्ञ शब्द का स्पष्ट प्रयोग भी है। यह स्पष्ट है कि जैन दर्शन के समान कोई पुरुष सर्वज्ञ हो सकता है यह बात वैदिक परम्परा में मान्य नही थी। पृष्ठ २९-उपमान अथवा अर्थापत्ति ये प्रमाण किसी विषयका अस्तित्व बतलाते हैं-अभाव का ज्ञान उन से नहीं होता, अतः सर्वज्ञ के अभाव को भी इन प्रमाणों से सिद्ध नही किया जा सकता। यह तर्क विद्यानन्द ने प्रस्तुत किया है। पृष्ठ ३१-सब वस्तुएं अनेक है, अनेक वस्तुएं किसी एक के ज्ञान का विषय होती हैं, अतः सब वस्तुएं किसी एक के ज्ञान का विषय होती हैं-यह अनुमान अनन्तवीर्य ने सिद्धिविनिश्चय टीका में उद्धृत किया है । इस अनु. मान की निर्दोषता का जो विवरण लेखक ने दिया है वह न्यायदर्शन को वादपद्धति के अनुसार है- असिद्ध हेत्वाभास के आश्रयासिद्ध, व्यधिकरणासिद्ध, भागासिद्ध आदि उपभेद जैन वादपद्धति में निरर्थक माने हैं इस का उल्लेख १) आप्तपरीक्षा ९८ : नानुमानोपमानार्थापत्त्यागमबलादपि। विश्वज्ञाभावसंसिद्धिस्तेषां सद्विषयत्वतः॥ २) पृष्ठ ७ : सर्वः सदसद्वर्गः कस्यचिदेकप्रत्यक्षविषयः अनेकत्वात् अंगुलिसमूहवत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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