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________________ -पृ. १५] टिप्पण ३१३ पृष्ठ ७-अपौरुषेय आगम का अस्तित्व अमान्य करने में चार्वाक और जैन एकमत हैं-दोनों के मत से वेद पुरुषकृत है-इस प्रश्न का विचार आगे नौ (परि. २८-३६) परिच्छेदों में किया है। परि. ३—देहात्मिका इत्यादि-इस श्लोक का चतुर्थ चरण प्रज्ञाकरके प्रमाणवार्तिकभाष्य (पृ. ६३ ) में 'नास्त्यभ्यासस्य सम्भवः' ऐसा है तथा शान्तिसूरि ने न्यायावतारवातिकवृत्ति (पृ. ४६) में यह चतुर्थ चरण 'न परलोकस्य सम्भवः ' ऐसा दिया है। इन दोनों ग्रन्थों में इस श्लोक में निर्दिष्ट मतों का पुरन्दर, उद्भट व अविद्धकर्ण से सम्बन्ध नही बतलाया है । प्रस्तुत ग्रन्थ में इन तीन आचार्यों के मतों का यह एकत्रित वर्णन एक विशेष उपलब्धि है । पृष्ठ ८-पूर्वजन्म-पुनर्जन्म के सिद्धान्त में अदृष्ट का स्थान बड़ा महत्त्वपूर्ण है। शिला से निर्मित देवप्रतिमा की पूजा होती है इसका कारण उस शिला में स्थित पृथिवीकायिक जीव का अदृष्ट हो है यह मत लेखक ने आगे विस्तार से स्पष्ट किया है (पृ. २०-२१)। किन्तु आधुनिक दृष्टि से शायद यह उचित प्रतीत नही होगा। परि.४, पृष्ठ १०-परि, ३ के प्रारंभ में चार्वाकों ने जो अनुमान प्रस्तुत किया है उसका यहां क्रमशः खण्डन किया है । जीव इन्द्रिय प्रत्यक्ष से ज्ञात नही होता-मानस या स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से ही ज्ञात होता है-इस से प्रकट होता है कि वह शरीरसे भिन्न है-शरीर इन्द्रिय प्रत्यक्ष से ज्ञात होता है। परि. ५, पृष्ठ १३-जीव का लक्षण ज्ञान-दर्शन है यह आगमिक परम्परा में प्रसिद्ध ही था २१ जीव ज्ञान का आधार है अतः शरीर से उस का अस्तित्व पृथक् है यह अनुमान प्रयोग न्यायसूत्र, व्योमवती टीका आदि में पाया जाता है। परि. ६, पृष्ठ १५-पुरन्दर आचार्य का मत पहले (पृ. ८) बताया है उस का यहां खण्डन किया है । जीव के शरीर से अन्यत्र अस्तित्व के बारे १) पं. फूलचन्द्र लिखते हैं-कर्म कुछ सीधा धन, सम्पत्ति के इकठ्ठा करने में निमित्त नही होता। उस से तो राग द्वेष आदि भाव होते हैं और इन भावों के अनुसार जीव धन, घर, स्त्री आदि बाह्य पदार्थों के संयोगवियोग में प्रयत्नशील रहता है इसलिए इन्हें सीधा कर्म का कार्य नहीं मानना चाहिए। वास्तव में दरिद्रता और श्रीमन्ती यह राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था का फल है; कर्म का नही ( पंचाध्यायी भ. २ श्लो. ५७ की टीका)। २) उपयोगो लक्षणम् । तत्त्वार्थसूत्र २.८. ३) इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गम् । न्यायसूत्र १-१-१०. ४) शन्दादिज्ञानं क्वचिदाश्रितं गुणत्वात् । व्योमवती पृ. ३९३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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