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________________ ३१० विश्वतत्त्वप्रकाशः [पृ. १ अथवा अनन्त सुख कहा जाता है । वेदान्त दर्शन की परंपरा में सुख और दुःख ये शब्द सांसारिक अनुभव के लिए और आनन्द शब्द आत्मानुभव के लिए प्रयुक्त होता है २ | प्रस्तुत ग्रंथ में इस विशेषण का तार्किक चर्चा में विचार नही किया है। आत्मा के ये तीन विशेषण-पर, विश्वतत्त्वप्रकाश तथा परमानन्दमूर्ति-सर्वश अवस्था के हैं। अन्तिम विशेषण-अनाद्यनन्तरूप-आत्मा के अस्तित्व के विषय में है। आत्मा का अस्तित्व-काल की दृष्टि से तथा पर्यायों की दृष्टि से-अनादि व अनन्त है३ | उस का परमत्व, विश्वतत्त्वप्रकाशकत्व तथा परमानन्दरूपत्व सादि-अनन्त है । आत्मा के अनादि-अनन्त अस्तित्व का विचार ग्रन्थ के प्रारंभ के १२ परिच्छेदों में किया है। परिच्छेद १-पृ.१-प्रारम्भ में चार्वाक दर्शन का जो पूर्वपक्ष प्रस्तुत किया है उस के दो भाग है-जीव के विषय में चार्वाकों का मत तथा अन्य मतों का चार्वाकों द्वारा खण्डन । पहले भाग का संक्षिप्त निर्देश पृ. १ पर दो वाक्यों में है तथा इस का समर्थन परिच्छेद ३ में किया है। दूसरे भाग के लिए परि. १ तथा २ लिखे गये हैं। पहले भाग के मुख्य दो वाक्य हैचैतन्य की उत्पत्ति भूतों (पृथिवी, जल, तेज, वायु) से होती है तथा यह चैतन्य (जीव) जलबुद्बुद के समान अनित्य-विनाशशील है। इनका पूर्वपक्ष के रूप में निर्देश समन्तभद्र, अकलंक, हरिभद्र आदि ने किया है। इस पूर्वपक्ष का उत्तर परि. ४ से ९ तक दिया है। प्रत्यक्ष प्रमाण केवल सम्बद्ध और वर्तमान काल के विषयों को ही जानता है यह बात इंद्रियजन्य प्रत्यक्ष के सम्बन्ध में सही है । प्रस्तुत ग्रन्थकर्ता ने भी सर्वज्ञ का अभाव प्रत्यक्ष से ज्ञात नही होता यह बतलाते समय इसी तर्क का उपयोग किया है (परि. १३, पृ. २५)। किन्तु जैन मत में प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय भी १) अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणतं । अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धवओगप्पसिद्धाणं ॥ कुंदकुंद-प्रवचनसार गा. १३. २)आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्। तैत्तिरीयोपनिषत् ३.६. आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कदाचन। उपर्युक्त २-४. ३) कालओ णं जीवे न कया वि न आसि जाव निच्चे नत्थि पुण से अंते, भावओ णं जीवे अणता दंसणपज्जवा अणंता णाणपज्जवा अणता अगुरुलहुयपज्जवा नत्थि पुण से अन्ते । भगवतीसूत्र २-१-९०. ४) सुत्तम्मि चेव साई अपज्जवसियं ति केवलं वुत्तं । सन्मति २-७. ५) समन्तभद्रयुक्त्यनुशासन ३५-मद्यांगवद् भूतसमागमे ज्ञः।; अकलंक-सिद्धिविनिश्चय ४.१४जलबुबुदवत् जीवाः मदशक्तिवत् विज्ञानमिति परः अर्के कटुकिमानं दृट्वा गुडे योजयति। हरिभद्र-पड्दर्शनसमुच्चय ८३-किं च पृथ्वी जलं तेजो वायुर्भूतचतुष्टयं चैतन्यभूमिः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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