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________________ विश्वतत्त्वप्रकाशः [८९निराकरणेन च बाह्यार्थस्य तत्र प्रमाणैः समर्थितत्वात् । किं च। अर्थरहितज्ञानमात्रप्रतिभासेऽपि सत्तागुणत्वज्ञानत्वजातिकल्पना ज्ञानमिति नामकल्पना च प्रतीयते। तस्मात् कल्पनारहितं प्रत्यक्षं नोपपनीपद्यत एव । ननु भवानसौ [मनसो] युगपदवृत्तेः सविकल्पनिर्विकल्पयोः । विमूढो लघुवृत्तेर्वा तयोरैक्यं व्यवस्यति ॥ (प्रमाणवार्तिक २-१३ ) इति चेन। तस्य विचारासहत्वात्। तथा हि। विमूढस्तयोरैक्यं सवि. कल्पकेन व्यवस्यति निर्विकल्पकेन वा निश्चिनुयात् । न तावत् सविकल्पकेन तस्य निर्विकल्पकवार्तानभिज्ञत्वात् । नापि निर्विकल्पकेन तस्य सविकल्पकवार्तानभिज्ञत्वात् । अथ आलयविज्ञानेन तयोरैक्यं निश्चिनोतीति चेत् तर्हि आलयविज्ञानं नाम किमुच्यते । नित्यज्ञानमिति चेत् तस्य वस्तुत्वमवस्तुत्वं वा । वस्तुत्वे तस्यैव नित्यचैतन्यस्य आत्मत्वात् क्षणिक सवात्मशून्यमकर्तृकमित्येतत् विरुद्धयेत। तस्यावस्तुत्वे तेन तयारक्यनिश्चयायोगात् तस्मात् तयोरैक्यं व्यवस्यतीत्यसंभाव्यमेव। किं च। निर्विकल्पकप्रत्यक्षसद्भावावेदकप्रमाणाभावात् तन्नास्तीति निश्चीयते। जातियां तथा ज्ञान इस संज्ञा की कल्पना प्रतीत होती ही है । अतः पूर्णतः कल्पनारहित ज्ञान सम्भव नही है ।। यहां बौद्धों की आपत्ति है-'मन निर्विकल्प तथा सविकल्प ज्ञान में एकसाथ प्रवृत्त होता है अथवा बहुत जलदी प्रवृत्त होता है अतः दोनों के भेद का खयाल भल कर दोनों को एक समझता है। किन्तु यह आपत्ति उचित नही । इन दोनों को एक समझने का जो ज्ञान है वह सविकल्पक है अथवा निर्विकल्प है? सविकल्प ज्ञान निर्विकल्प को नही जानता तथा निर्विकल्प ज्ञान सविकल्प को नही जानता । अतः इन दोनो में किसी द्वारा दोनों की अभिन्नता जानना सम्भव नही है । यह अभिन्नता आलय-विज्ञान द्वारा जानी जाती है ऐसा बौद्ध कहते हैं । किन्तु आलय-विज्ञान से क्या तात्पर्य है ? यदि नित्य वास्तविक ज्ञान को आलयविज्ञान कहें तो सब पदार्थ क्षणिक हैं इस बौद्ध सिद्धान्त को बाधा पहुंचती है। यदि आलयविज्ञान अवास्तविक हो तो उस का निर्णय भी वास्तविक कसे होगा ? अतः इन दोनों की एकता का ज्ञान और निर्विकल्प ज्ञान के अस्तित्व की कल्पना भी निराधार ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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