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________________ २९८ विश्वतत्त्वप्रकाशः [ ८९ भावस्य सर्वदा अस्तित्वात् । द्वितीयपक्षे आश्रयहीनो दृष्टान्तः स्यात् । खरमस्तके विषाणस्य त्रिकालेऽप्यसत्वात् । तस्मान्निर्बाधप्रत्यक्षगोचरत्वाद् वज्रमणिशिलास्तम्भायः सारपिण्डपटघटादीनामवयविद्रव्यत्वं सिद्धमेव । ततश्च सौगतोक्तरूपस्कन्धाः न जाघटयन्ते । तथा वेदनास्कन्धा अपि । सुखदुःखादीनामात्मविशेषणगुणत्वेन स्कन्धत्वासंभवात् । तथा विज्ञानानामपि स्कन्धत्वं नोपपनीपद्यते । तेषामपि आत्मगुणत्वेन स्कन्धत्वानुपपत्तेः । तेषामात्मविशेषगुणत्वं प्रागेव समर्थितमिति नेह प्रतन्यते । [ ८९. निर्विकल्पक प्रत्यक्ष निरासः । ] यदुक्तम्-जातिक्रियागुणद्रव्यसंज्ञाः पञ्श्चैव कल्पनाः अश्वो याति सितो घण्टी कत्तालाख्यो यथा क्रमादित्येतत् कल्पनासहितं सविकल्पकं तद्रहितं निर्विकल्पकमिति - तदसमञ्जसम् । कल्पनारहितस्य ज्ञानस्यासंभवात् । तथा हि । जलधराद्येकवस्तुप्रतिपत्तावपि सदिति सत्ताजातिः प्रतीयते । धावतीति क्रिया प्रतीयते । कृष्णवर्ण इति गुणः प्रतीयते । विद्युत्वानिति द्रव्यं प्रतीयते । मेघोऽयमिति परिभाषा प्रतीयते । इति कल्पनारहितस्यैव होगा । गधे का सींग यह उदाहरण मानना सम्भव नही क्यों कि इस का कभी अस्तित्व ही नही होता अतः ऐसे उदाहरण से कोई अनुमान सिद्ध नही होता । तात्पर्य यह कि अवयवी द्रव्य - जैसे रत्न, खम्बे, लोहे के गोले, वस्त्र, घडे आदि हैं- निर्बाध प्रत्यक्ष ज्ञान से ही सिद्ध हैं । अतः परस्पर सम्बन्ध रहित परमाणुओं का बौद्धसम्मत रूपस्कन्ध मानना ठीक नही है । सुख-दुःख आदि वेदना तथा विज्ञान ये आत्मा के विशेष गुण हैं यह पहले स्पष्ट किया है अतः इन्हें भी स्कन्ध मानना ठीक नही । ८९. निर्विकल्प प्रत्यक्षका निरास- - विज्ञान स्कन्ध के वर्णन में बौद्धोंने कहा है कि निर्विकल्प प्रत्यक्ष में जाति, क्रिया, गुण, द्रव्य, संज्ञा ये पांच कल्पनाएं नहीं होतीं किन्तु ऐसे कल्पनारहित प्रत्यक्ष का अस्तित्व सम्भव नही । मेघ इस एक वस्तु के ज्ञान में भी अस्तित्वयुक्त होना यह जाति, चलना यह क्रिया, काला रंग यह गुण, बिजली सहित होना यह द्रव्य तथा यह मेघ है इस प्रकार संज्ञा का ज्ञान होता ही है । इन कल्पनाओं से रहित ऐसा कोई ज्ञान चक्षु आदि इन्द्रियों से नही होता । स्वसंवेदन प्रत्यक्ष में सिर्फ स्वरूप का ज्ञान होता है-उस में ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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