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________________ २५८ विश्वतत्त्वप्रकाशः [-७९ न्यायार्जितधनस्तत्वज्ञाननिष्ठोऽतिथिप्रियः। श्रद्धाकृत् सत्यवादी च गृहस्थोऽपि विमुच्यते ॥ .[ याज्ञवल्क्यस्मृतिः ३.४.२०५] इति वचनान्मुमुक्षूणां प्रवज्यया भवितव्यमिति नियमो नास्तीत्यत्रापि मोक्षार्थो न प्रवर्तेत तत्र काम्यनिषिद्धयोः।। नित्यनैमित्तिके कुर्यात् प्रत्यवायजिहासया ॥ इति भाट्टाः प्रतिपेदिरे। ननु प्रत्यवायपरिहारकामतया नित्यनैमित्तिकानुष्ठानयोः प्रवर्तनात् तयोरपि काम्यानुष्ठानकुक्षौ निक्षेपात् तत्करणमपि मोक्षकांक्षिणा न विधीयत इति प्राभाकराः प्रत्यूचिरे। ते सर्वेऽप्यनात्मज्ञा एव । वेदवाक्यानामसत्यत्वेन तदुक्तानुष्ठानात् स्वर्गापवर्गप्राप्तेरयोगात् । कथं वेदवाक्यानामसत्यत्वमिति चेत् कथ्यते। दशरथो ब्रह्महत्यापरिहारार्थमश्वमेधत्रयं विधायापि नारको बभूवेति 'तरति शोकं तरति पाप्मानं तरति ब्रह्महत्यां योऽश्वमेधेन यजते य उ चैनमेवं वेद ' इत्यादीनामसत्यत्वं निश्चीयते । तथा न्यायपूर्वक धन प्राप्त करता है, तत्त्वज्ञान में निष्ठा रखता है, अतिथिओं का सत्कार करता है, सत्य बोलता है तथा श्रद्धावान् है वह गृहस्थ भी मुक्त होता है। ऐसा वचन है । इस लिये भाट्ट मीमांसक कहते हैं कि 'मोक्ष के इच्छुक पुरुष ने काम्य और निषिद्ध कर्म नही करना चाहिये, किन्तु हानि से बचने के लिए नित्य और नैमित्तिक कर्म करना चाहिए'। प्राभाकर मीमांसक नित्य और नैमित्तिक कर्म को भी काम्य कर्म में सम्मिलित करते हैं क्यों कि उन में भी हानि से बचने की कामना रहती है। अतः उन के मत से मोक्षप्राप्ति के लिए नित्यनैमित्तिक कर्म भी छोडना चाहिए। जैन दृष्टि से मीमांसकों का यह सब कथन व्यर्थ है क्यों कि इन के आधारभूत वेदवाक्य ही अप्रमाण हैं। वेदों की अप्रमाणता पहले विस्तार से स्पष्ट की है। यहां कुछ और उदाहरण देते हैं। अश्वमेध से शोक पाप और ब्रह्महत्त्या से छुटकारा मिलता है ऐसा कहा है किन्तु दशरथ ने तीन बार अश्वमेध करने पर भी उसे नरक की प्राप्ति कही है। गंगा-यमुना के संगम में स्नान करने पर स्वर्ग की तथा वहां मृत्यु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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